श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
प्रसन्नता प्रकट करते हुए प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'ओहो! ये ही श्रीकृष्णचैतन्य भारती हैं। इनकी प्रशंसा तो हम बहुत दिनों से सुन रहे हैं। आज इनके खूब दर्शन हुए। (प्रभु को लक्ष्य करके) आप वहाँ क्यों बैठ गये, यहाँ आइये। आपका वहाँ बैठना शोभा नहीं देता।
प्रभु ने सिर को नीचे किये हुए धीरे से उत्तर दिया- 'भगवन! मैं हीन सम्प्रदाय वाला हूँ, भला आपके बराबर कैसे बैठ सकता हूँ। यहीं ठीक बैठा हूँ।
प्रकाशानन्द जी प्रभु की सरलता और नम्रता को देखकर एक दम मन्त्र-मुग्ध से हो गये। जब दो-तीन बार कहने पर भी प्रभु अपने स्थान से नहीं उठे तब तो प्रकाशानन्द जी स्वयं उठकर गये और प्रभु का हाथ पकड़कर उन्हें अपने सामने ही गद्दी पर बिठा लिया। अत्यन्त ही संकोच के साथ प्रभु विवशता-सी दिखाते हुए सिकुड़कर बैठ गये। प्रभु धीरे-धीरे भगवन्नामों का उच्चारण कर रहे थे। भगवन्नाम-उच्चारण से जिस प्रकार वायु लगने से कमल की पंखुडियाँ हिलती हैं, उसी प्रकार उने बिम्बाफल के समान दोनों अधर हिल रहे थे। कुछ बातें करने की इच्छा से प्रसंग छेड़ते हुए प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'स्वामी जी! मैं आपसे एक शिकायत करना चाहता हूँ; आप पहले आये और मुझसे बिना ही मिले चले गये। साधुओं के सम्बन्धी साधु ही होते हैं। वाराणसी में आपका एक मठ था, उसमें न आकर आप गृहस्थियों के यहाँं ठहरे और मुझसे मिले भी नहीं। मालूम पड़ता है आप मुझे अपना नहीं समझते।'
प्रभु ने इस बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उसी समय एक चुलबुल-से युवक संन्यासी ने धीरे से कहा-‘मौनं स्वीकृतिलक्षणम्‘।।[1] इस बात के सुनते ही संन्यासी मण्डली में जोर का कह कहा मच गया। सबके चुपचाप हो जाने पर प्रभु ने धीरे-धीरे लज्जा के स्वर में कहा- ‘आप गुरुजनों के सामने मैं क्या मुख लेकर आंऊ। अपने में इतनी योग्यता नहीं समझी कि आपके दर्शन कर सकूं, इसी संकोच से नहीं आया।’
बात बदलते हुए प्रकाशानन्द जी ने कहा– ‘तुमने कटवा के केशव भारती से ही संन्यास लिया है न?
प्रभु ने धीरे से कहा–‘जी हां, वे ही मेरे दीक्षागुरु हैं’
प्रकाशानन्द जी ने कुछ रुक-रूककर कहा –‘एक बात पूछना चाहता हूँ, तुम बुरा न मानो तो पूछूं।
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