श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
वृन्दावन से लौटकर प्रभु दो महीनों तक काशी में रहे। इस प्रवास में प्रभु बहुत ही साधारण संन्यासी की तरह रहते थे। वे न तो कहीं बाहर भिक्षा के लिये जाते थे और न संन्यासियों के दर्शनों को जाते। केवल चन्द्रशेखर के घर से गंगा स्नान को और विश्वनाथ जी के दर्शनों को जाते और तपन मिश्र के घर भिक्षा करके वहीं भगवन्नाम-संकीर्तन ओर जप करते रहते। इसलिये उनके दो-चार अन्तरंग भक्तों को छोड़कर प्रभु की महिमा किसी पर प्रकट नहीं हुई ! प्रकाशानन्द जी मन-ही-मन सोचते- 'सचमुच यह कोई अजीब ही संन्यासी हैं। हमारे साथ इतना परिचय होने पर भी यह हमारे मठ में नहीं आता है और न संन्यासियों की सभा में सम्मिलित होता है।' अवश्य ही कोई विलक्षण पुरुष है।' जो महाराष्ट्रीय ब्राह्मण प्रभु के चरणों में अत्यधिक अनुराग रखते थे, उनका घर श्री प्रकाशानन्द जी के मठ के समीप ही था। वे प्राय: उनके पास जाया-आया करते और उनका यथाशिक्त द्रव्यादि से सेवा-सुश्रूषा भी किया करते। जब-जब महाप्रभु का प्रसंग छिड़ता तब-तब प्रकाशानन्द जी प्रभु के ऊपर कटाक्ष करते और उनके निन्दा सूचक शब्दों का प्रयोग भी कर बैठते। वैसे उनका हृदय सरस था। कवि-प्रकृति के थे। भावुक थे। मिलनसार थे, प्रणय के ऐकान्तिक उपासक थे; किन्तु अभी तक उनकी भावुकता को अद्वैत वेदान्त की प्रखर युक्तियों ने प्रच्छन्न कर रखा था। अभी तक उनकी सरसता और प्रणयोत्सुकता प्रस्फटित नहीं हुई थी। प्राय: देखा गया है कि ऐसे भारी विद्वानों की भावुकता किसी परम भावुक महापुरुष के संसर्ग से ही एकदम विकसित हो जाती है। |