श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी139. रूप की विदाई और प्रभु का काशी-आगमन
रूप! तुम सोचो तो सही, जिस स्त्री के पीछे संसार पागल हो रहा है, वह वास्तव में है क्या? इन्हीं पंचभूतों की एक पुतली है। किसी सुन्दर-से-सुन्दर स्त्री को एकान्त में ऐसी हालत में देखो जब उसे संग्रहणी का रोग हो गया हो और उसके पास सेवा करने के लिये कोई भी मनुष्य न हो, तुम देखोगे, उसके सम्पूर्ण शरीर से दुर्गन्ध उठ रही होगी। वस्त्रों को छूने की तबीयत न चाहेगी। उसकी नासिका में से गाढ़ा-गाढ़ा मल निकल रहा होगा। निरन्तर शौच जाने से उसका गुलाब के समान मुख पिचककर पीला पड़ गया होगा। आँखें भीतर धँस गयी होंगी। स्तन और बुरे हो गये होंगे। आँखों के दोनों ओर मल भर रहा होंगे। पेट सिकुड़कर पीठ में लग गया होगा। मूत्र और पुरीष से उसकी जांघें सन गयी होगी, जिनकी ओर देखने से ही फुरहुरी आ जाती होगी। नख पीले पड़ गये होंगे। मुख में से बदबू उठ रही होगी और वाणी में गहरी वेदना और करुणा आ गयी होगी। आज से चार दिन पहले उसका पति उसे सर्वस्व समझकर उसके आलिंगन में महान-से-महान सुख का अनुभव करता होगा, वही ऐसी दशा में उसका आलिंगन करना तो दूर रहा, पास भी नहीं बैठ सकता। जो रूप इतना विकृत हो सकता है, जिसका सौन्दर्य पेट में भरे हुए दुर्गन्धयुक्त मल के ही निकल जाने से ही क्षणभर में नष्ट हो सकता है उसमें सुख की खोज करना और उसी को जीवन का परम सुख समझकर उसकी प्राप्ति के लिये पागल होना कैसी भारी मुर्खता है? अरे, इस पंचभूत के बने हुए और नौ छिद्रों वाले मल-मूत्र से भरे हुए शरीर में सुख कहाँ, शान्ति कहाँ, सौन्दर्य और आनन्द कहाँ? वह तो उस ब्रह्मानन्द के आनन्द की छायामात्र थी, जो विकृति होने से कुरुपता को प्राप्त हो गयी। छाया को छोड़कर असली आनन्द को खोजो, तुम्हें शान्ति मिलेगी। |