श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी138. महाप्रभु वल्लभाचार्य और महाप्रभु गौरांगदेव
प्रभु ने उनका परिचय पाकर उनसे कहा- 'सुना है आप बड़े प्रसिद्ध कवि हैं, असल में वही काव्य काव्य कहा जा सकता है, जिसमें श्रीकृष्ण की लीला और गुणों का वर्णन हो। आप कोई स्वरचित श्रीकृष्ण सम्बन्धी श्लोक सुनाइये।' दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए अत्यन्त ही दीनता के साथ उन उपाध्याय कवि ने कहा- 'प्रभो! कविता मैं क्या जानूँ ? वैसे ही इधर-उधर के पद जोड़ लेता हूँ। श्रीकृष्ण की लीला तो अवर्णनीय है, उनके सभी गुण अचिन्त्य हैं, उनका मैं मायामोह में फंसा हुआ अज्ञानी जीव वर्णन ही क्या कर सकता हूँ? एक पद है, पता नहीं वह आपको पसंद आवेगा या नहीं।' प्रभु ने जल्दी से कहा- 'आपके ऊपर श्रीकृष्ण भगवान की कृपा है। तभी तो इतनी भारी प्रतिभा होते हुए भी आप इतने विनम्र हैं। सुनाइये, आप जो भी कुछ सुनावेंगे वही अमृत तुल्य होगा।' प्रभु ने कहने पर महामहिम उपाध्याय कवि अपने कोकिलकूजित कमनीय कण्ठ से श्रीकृष्ण के पिता नन्दबाबा की स्तुति-सम्बन्धी इस प्रेममय पद्य का बड़े ही स्वर के सहित गायन करने लगे- श्रुतिमपरे स्मृतिमितरे भारतमन्ये भजन्तु भवभीतः। इस श्लोक को सुनते प्रभु लेटे-से एकदम उठकर बैठे हो गये और उपाध्याय का जोरों से आलिंगन करते हुए कहने लगे- 'वाह! वाह! धन्य है। अहा, नन्द जी के भाग्य की सराहना कौन कर सकता है ? कैसे कहा 'अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परं ब्रह्मा।।' सचमुच बड़ा ही सुन्दर श्लोक है। कृपा करके और भी कोई ऐसा ही सुनाइये।' कवि की कही हुई कविता की आप यथोचित प्रशंसा भर कर दीजिये, उसी से उसे परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। यथोचित प्रशंसा ही पद्य का सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार है। उपाध्याय उसी स्वर से गाने लगे- सम्प्रति कथयितुमीशे सम्प्रति को वा प्रतीतिमायातु। पण्डित प्रवर श्रीरघुपति उपाध्याय के इन परम प्रेममय पदों को सुनकर प्रभु प्रसन्नता प्रकट करते हुए उनसे कुछ प्रश्न पूछने लगे। प्रभु ने कहा- 'कविवर महोदय! टाप की प्रखर प्रतिभा की प्रशंसा करना बुद्धि के परे की बात है। मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि आप सब रूपों में सर्वश्रेष्ठ रूप किसे समझते हैं?' उपाध्याय ने कहा- 'प्रभो! सांवरे की श्याम रंग की सलोनी सूरत को ही मैं सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ।' प्रभु ने फिर पूछा- 'अच्छा, वासस्थानों में सर्वश्रेष्ठ वासस्थान किसे समझते हैं?' उपाध्याय ने कहा- 'मधुमयी मधुपुरी के माधुर्य के सम्मुख सभी पुरियाँ फीकी पड़ जाती हैं; अतः मधुपरी ही सर्वश्रेष्ठ वासस्थान है।' प्रभु ने पूछा- 'यह तो ठीक है, किन्तु भगवान की बाल, पौगण्ड और किशोर- इन अवस्थाओं में से किस अवस्था को आप सर्वश्रेष्ठ समझते हैं?' उपाध्याय ने गद्गद कण्ठ से कहा- 'प्रभो! यह भी कोई पूछने की बात है; उस कारे की कमनीय कौमारावस्था ही तो परमध्येय और सर्वश्रेष्ठ है। उसी के ध्यान से तो मन आनन्दसागर में उन्मत्त होकर विहार कर सकता है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भवसागर से भयभीत हुए बहुत-से पुरुष श्रुति की शरण लेते हैं, बहुत-से स्मृतियों का आश्रय लेते और बहुत-से महाभारत के द्वारा ही उस भय से बचना चाहते हैं। वे लोग ऐसा करते हैं तो करते रहें; किन्तु मैं तो उन महाभाग्यवान श्री नन्दबाबा के ही चरणों में प्रणाम करता हूँ, जिनकी दिवारी (बरामदे)- में साक्षात सनातन पूर्ण ब्रह्म ही नृत्य करते हैं।
- ↑ किसके सामने जाकर कहें? यदि किसी से जाकर कहें भी तो इस समय कौन हमारी इस बात पर विश्वास करेगा कि तरिणतनूजा-तट पर गोपांगनाओं के प्रति लम्पट हुआ वही साक्षात परब्रह्म क्रीड़ा कर रहा है।