श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी137. महाप्रभु वल्लभाचार्य
गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्त्यक्तुं न शक्यते। (सर्वोत्तम सिद्धान्त तो यह है कि) घर का पूर्ण रीति से परित्याग ही कर देना चाहिये। (किन्तु पूर्व जन्म के संस्कारों से सभी गृह त्याग ने में समर्थ नहीं हो सकते इसलिये) यदि घर को पूर्णरीत्या त्याग करने की सामर्थ्य न हो तो घर में रहकर सब कार्य श्रीकृष्ण के निमित्त-उनके प्रीत्यर्थ ही करे। (ऐसा करने पर कर्म करने से जो पाप होता है। वह पाप न होगा) क्योंकि श्रीकृष्ण सभी प्रकार के अनर्थों को मोचन करने वाले हैं। संगः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्तयक्तुं न शक्यते। (सर्वोत्तम सिद्धान्त तो यह है कि) संग किसी का करना ही नहीं चाहिये। सभी प्रकार के संगों का एकदम परित्याग कर देना चाहिये। (किन्तु अनेक जन्मों से जीव का समाज में मिलकर रहते आने का स्वभाव पड़ गया है, इसलिये) सब प्रकार के संगों का परित्याग करने में समर्थ न हो सके तो सज्जन तथा सन्त-महात्माओं का ही संग करना चाहिये। क्योंकि संग से जो काम उत्पन्न हो जाता है उसकी ओषधि सन्त ही हैं। भार्यादिरनुकूलश्चेत्कारयेद्भगवत्क्रियाः। (अब बताते हैं जो गृहस्थी बन चुका है उसे कैसा व्यवहार करना चाहिये। उस के लिये बताते हैं) यदि स्त्री आदि परिवार अपने मन को माफिक भगवत्भक्तिपरायणादि हो तो उससे भी भगवान की सेवा-पूजा आदि करवावे। यदि वह इस ओर से उदासीन हो (और आज्ञा करने पर ही सेवा करने को राजी हो तो) उससे न कराकर स्वयं करे। यदि वह भगवत- सेवा के विरुद्ध हो, तो एकदम घर को त्यागकर एकान्त में ही जाकर भगवत-पूजा-अर्चा करनी चाहिये। (जाके प्रिय न राम बैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही।।) जो विष्णुपरागमुख हों उनके त्याग ने में किसी भी प्रकार का दूषण नहीं है। (संसारी भोगों की इच्छा से तो किसी से किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना ही नहीं चाहिए।) |