श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी121. भक्तों की विदाई
सत्यराज ने पूछा- ‘प्रभो! वैष्णव की क्या पहचान है?’ महाप्रभु ने कहा- ‘जिसके मुख में से एक बार भी श्रीकृष्ण का नाम निकल जाय वही वैष्णव है, वैष्णव की यही एक मोटी पहचान है।’ कुलीनग्रामवासियों को सन्तुष्ट करके प्रभु खण्डग्रामवासियों की ओर देखने लगे। उनमें मुकुन्द दत्त, रघुनन्दन ये दोनों पितापुत्र और नरहरि ये ही तीन मुख्य जन थे। मुकुन्ददत्त के पुत्र रघुनन्दनजी थे। असल में रघुनन्द जी ही भगवदभक्त थे, पुत्र के संग से पिता को भक्तिलाभ हुई थी। इसी बात को सोचकर हंसते हुए प्रभु ने उनसे जिज्ञासा कि- ‘भाई ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुम लोगों में कौन पिता है और कौन पुत्र है?’ प्रभु के ऐसे प्रश्न को सुनकर गम्भीर वाणी में अमानी मुकुन्ददत्त कहने लगे- ‘प्रभो ! यथार्थ में पिता तो रघुनन्दन ही हैं। इस शरीर के सम्बन्ध से मैं इनका पिता भले ही होऊँ, किन्तु मुझे श्रीकृष्ण- भक्ति तो इन्हीं से प्राप्त हुई है। इन्हीं के अनुग्रह से मेरा पुनर्जन्म हुआ है, इसलिये सच्चे तो पिता ये ही है।’ महाप्रभु श्रीमुकुन्ददत्त के ऐसे उत्तर को सुनकर अत्यन्त ही सन्तुष्ट हुए और कहने लगे- ‘मुकुन्द ! आपने यह उत्तर अपने शील स्वभाव के अनुरूप ही दिया है। भगवद्भक्त को भक्ति प्रदान करने वाले महापुरुष में ऐसी ही भावना रखनी चाहिये। फिर चाहे वह अवस्था में, सम्बन्ध में, कुल में, जाति में, विद्या अथवा मान में अपने से छोटा ही क्यों न हो’ इतना कहकर महाप्रभु सभी भक्तों को सुनाकर मुकुन्ददत्त की भक्ति के सम्बन्ध में एक कथा कहने लगे- ‘मुकुन्द की प्रशंसा करने के अनन्तर प्रभु ने कहा- ‘इनकी कृष्णभक्ति बड़ी ही अपूर्व है। इनके वंशज सदा से राजवैद्यपने का कार्य करते आये हैं। ये भी मुसलमान बादशाह के वैद्य हैं। एक दिन ये बादशाह के समीप बैठे थे कि इतने में ही एक नौकर मयूरपिच्छ का पंखा लेकर बादशाह को वायु करने के लिये आया। मोरपंख के दर्शनों से ही इन्हें भगवान के मुकुट का स्मरण हो उठा और ये प्रेम में बेसुध होकर वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े। बादशाह को बड़ा विस्मय हुआ। तब उसने इनका विविध भाँति से उपचार कराया, होश में आने पर खेद प्रकट करते हुए बादशाह ने कहा- ‘आपको बड़ा कष्ट हुआ होगा?’ |