श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी112. प्रेम रस लोलुप भ्रमर भक्तों का आगमन
भट्टाचार्य के इस सम्मति को प्रभु ने स्वीकार कर लिया और गोविन्द को अपने शरीर की सेवा का कार्य सौंपा। उसी दिन से गोविन्द सदा प्रभु की सब प्रकार की सेवा करते रहते थे। वे प्रभु से कभी भी पृथक नहीं हुए। बारह वर्ष तक जब प्रभु को शरीर का बिलकुल भी होश नहीं रहा, तब गोविन्द जिस प्रकार माता छोटे पुत्र की सब प्रकार की सेवा करती है, उसी प्रकार की सभी सेवा किया करते थे। इनका प्रभु के प्रति वात्सल्य और दास्य दोनों ही प्रकार का स्नेह था। ये सदा प्रभु के पैरों को अपनी छाती पर रखकर सोया करते थे। गौड़-देश से भक्त नाना प्रकार की बढ़िया-बढ़िया वस्तुएँ प्रभु के लिये बनाकर लाते थे। वे सब गोविन्द को ही देते थे और उन्हीं की सिफारिश से वे प्रभु के पास तक पहुँचती थीं। वे सब चीजों को बता-बताकर और यह कहते हुए कि अमुक वस्तु अमुक ने भेजी हैं, प्रभु को आग्रहपूर्वक खिलाते थे। इनके जैसा सच्चा सेवक त्रिलोकी में बहुत ही दुर्लभ है। एक दिन प्रभु भीतर बैठे हुए थे। उसी समय मुकुन्द ने आकर धीरे से कहा- ‘प्रभो ! श्रीमत् केशव भारती जी महाराज के गुरुभाई श्रीब्रह्मानन्द जी भारती महाराज आपसे मिलने के लिये बाहर खड़े हैं, आज्ञा हो तो उन्हें यहाँ ले आऊँ।’ प्रभु ने जल्दी से कहा- ‘वे हमारे गुरुतुल्य हैं, उन्हें लेने के लिये हम स्वयं ही बाहर जायँगे।’ यह कहकर प्रभु अस्त व्यस्त से जल्दी जल्दी बाहर आये। वहाँ उन्होंने मृगचर्म ओढ़े हुए ब्रह्मानन्द जी भारती को देखा। महाप्रभु चारों ओर देखते हुए जल्दी जल्दी मुकुन्द से पूछने लगे- ‘मुकुन्द, मुकुन्द! भारती महाराज कहाँ हैं ? तुम कहते थे, भारती महाराज पधारे हैं, जल्दी से मुझे उनके दर्शन कराओ।’ मुकुन्द इस बात को सुनकर आश्चर्य चकित हो गये। भारती महाप्रभु के सामने ही खड़े हैं, फिर भी महाप्रभु भारती जी के सम्बन्ध में पूछ रहे हैं। इसलिये उन्होंने कहा- ‘प्रभो ! ये भारती महाराज आपके सामने ही तो खडे़ हैं!’ महाप्रभु ने कुछ दृढ़ता के स्वर में कहा- ‘नहीं, कभी नहीं; तुम झूठ कह रहे हो। भला, भारती महाराज इस प्रकार मृगचर्म ओढ़कर दिखावा कर सकते हैं।’ प्रभु की इस बात को सुनकर सभी चकित भाव से प्रभु की ओर निहारने लगे। भारती महाराज समझ गये कि प्रभु को मेरा यह मृगचर्माम्बर रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ है, इसीलिये उन्होंने उसे उसी समय फेंक दिया। प्रभु ने उसी समय उनके चरणों में प्रणाम किया। वे लज्जितभाव से कहने लगे- ‘आप हमें प्रणाम न करें। आप तो साक्षात ईश्वर हैं।’ प्रभु ने कहा- ‘आप हमारे गुरु हैं, आपको भी प्रणाम न करेंगे तो और किसे करेंगे। हमारे तो साकार भगवान आप ही हैं।’ |