श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी110. नौरो जी डाकू का उद्धार
नौरोजी ने ऐसी बात सुनकर उसके दल के सभी डाकू रोने लगे। उसका दल छिन्न भिन्न हो गया, बहुतों ने डाका डालने का काम छोड़ दिया। नौरोजी प्रभु के साथ चल दिया। आज तक बहुत से आदमियों ने प्रभु के साथ चलने की प्रार्थना की थी, किन्तु प्रभु ने किसी को भी साथ नहीं लिया। परम भाग्यवान नौरोजी के भाग्य की कोई कहाँ तक प्रशंसा करे, जिसे प्रभु ने प्रसन्नतापूर्वक साथ चलने की अनुमति दे दी। आगे आगे महाप्रभु, उनके पीछे गोविन्द दास और सबसे पीछे नौरोजी संन्यासी चलते थे। इस प्रकार चलते चलते खण्डला में पहुँचे। वहाँ पर लोगों ने महाप्रभु का खूब सत्कार किया, वहाँ से चलकर प्रभु नासिक गये और वहाँ पंचवटी में नृत्य-कीर्तन करते हुए आनन्द में मग्न हो गये। नौरोजी महाप्रभु के श्रीअंग के पसीने को बार बार पोंछते रहते थे। उस समय के बड़ौदा के महाराज बड़े ही भक्त थे। उन्होंने बहुत द्रव्य लगाकर भगवान का एक मंदिर बनवाया था, उसमें स्वयं ही भगवान की पूजा तथा साधु महात्माओं का सत्कार करते थे। महाप्रभु श्रीकृष्ण की मूर्ति के दर्शन करके प्रेमानन्द में मग्न होकर नृत्य करने लगे। महाराज उनके अद्भुत नृत्य और अलौकिक प्रेम के भावों को देखकर मुग्ध हो गये। उन्होंने महाप्रभु का बहुत सत्कार किया। बहुत कुछ भेंट करने की इच्छा की किन्तु महाप्रभु ने संन्यास धर्म के अनुसार मुष्टि-भिक्षा के अतिरिक्त कुछ भी ग्रहण नहीं किया। बड़ौदा में ही आकर नौरोजी ने महाप्रभु के सामने अपने इस नश्वर शरीर का त्याग किया। महाप्रभु ने रोते रोते आत्मीय पुरुष की तरह एक भक्त वैष्णव की भाँति उसे अपने करकमलों से समाधि में सुला दिया। इस प्रकार जन्म से हिंसा और धन अपहरण करने वाला एक डाकू महाप्रभु की शरण आने से अमर हो गया। |