श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी109. दक्षिण के शेष तीर्थों में भ्रमण
उन पण्डितों में से एक अत्यन्त ही शुष्क हृदयवाला पण्डित बोल उठा- ‘तेरे कृष्ण इस जल में छिपे हैं।’ बस, इतना सुनना था कि महाप्रभु उसी क्षण छलाँग मारकर जल में कूद पड़े। लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। सर्वत्र हाहाकार मच गया। बहुत से पुरुष उसी क्षण सरोवर में कूद पड़े और प्रभु को जल से बाहर निकाला। इस पर सभी लोग उस पण्डित को धिक्कार देने लगे। वह भी अपना सा मुँह लेकर मारे शर्म के उसी क्षण चला गया।’ यहाँ से चलकर प्रभु भोलेश्वर होते हुए जिजूरी नगर में पहुँचे। यहाँ पर खाण्डवादेव का बड़ा भारी मन्दिर है। यहाँ एक बड़ी ही बुरी प्रथा है। जिस कन्या का विवाह नहीं होता उसे माता-पिता देवता के अर्पण कर देते हैं और उसे देव दासी कहते हैं। उनमें अधिकांश दुश्चरित्रा और व्याभिचारिणी होती हैं। महाप्रभु ने जब यह बात सुनी तब वे स्वयं इन अभागी पतिता नारियों को देखने के लिये खाण्डवादेव के मन्दिर में गये। प्रभु ने अपनी आँखों से उन अभागिनियों की दुर्दशा देखी। उनकी दयनीय दशा देखकर दयामय श्रीचैतन्य उनसे बोले- ‘देवियो ! तुम धन्य हो, तुम्हारा ही जीवन सार्थक है, अन्य स्त्रियों के पति तो हाड़-मांस के पुतले नश्वर शरीर वाले मनुष्य होते हैं, किन्तु तुम्हारे पति तो साक्षात श्रीहरि हैं। गोपियों ने श्रीहरि को पति बनाने के लिये असंख्यों वर्ष तप किया था। असल में सच्चे पति तो वे ही नन्दनन्दन हैं, इसलिये तुम सब प्रकार से मन लगाकर श्रीकृष्ण नाम का ही कीर्तन किया करो। श्रीहरि के ही नाम का सदा स्मरण किया करो। उनका नाम पतितपावन है, सच्चे हृदय से जो एक बार भी यह कह देता है कि मैं तुम्हारी शरण हूँ, तो वे सभी पापों को क्षमा कर देते हैं। |