श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी103. राजा रामानन्द राय
उसी समय दूर ही से उन्होंने अकेले वृक्ष के नीचे बैठ हुए एक नवीन अवस्था वाले काषाय वस्त्रधारी परमरुप-लावण्य युक्त युवक संन्यासी को देखा। पता नहीं, उस युवक संन्यासी की चितवन में क्या जादू भरा हुआ था, उसे देखते ही राय रामानन्द मन्त्रमुग्ध-से बन गये। उन्होंने देखा, संन्यासी के अंग-प्रत्यंग से मधुरिमा निकल-निकलकर उस निर्जन प्रदेश को मधुमय, आनन्दमय और उल्लासमय बन रही है। गोदावरी का वह शांत एकांत स्थान उस नवीन संयासी की प्रभा से प्रकाशित सा हो रहा है, संन्यासी अपने एक पैर के ऊपर दूसरे पैर को रखे हुए एकटक-भाव से रामान्द राय की ओर ही निहार रहा है, उसके चेहरे पर प्रसन्नता है, उत्सुक्ता है, उन्मत्तता है और है किसी से तन्मयता प्राप्त करने की उत्कट इच्छा। संन्यासी कुछ मुसकता रहा है और उसके बिम्बाफल के समान दोनों अरुण ओष्ठ अपने आप ही हिल जाते हैं। पता नहीं, वह अपने आप ही क्या कहने लग जाता है। राय महाशय अपने को संभाल नहीं सके। उस संन्यासी ने दूर से ही ऐसा कोई मोहिनी मन्त्र पढ़ दिया कि उसके प्रभाव से वे राजापन के अभिमान को छोड़कर पालकी की ओर जाते-जाते ही सीधे उस संन्यासी की ओर जाने लगे। अपने प्रभु को संन्यासी की ओर आते देखकर सेवक भी उनके पीछे-पीछे हो लिये। पाठक समझ ही गये होंगे कि ये नवीन संन्यासी हमारे प्रेम पारसमणि श्रीचैतन्य महाप्रभु ही हैं। महाप्रभु गोदावरी के किनारे एकान्त में स्नानादि से निवृत्त होकर यही सोच रहे थे कि राय रामानन्द से किस प्रकार भेंट हो, उसी समय उन्हें बजते हुए बाजों की ध्वनि सुनायी दी। महाप्रभु उन बाजे वालों की ओर देखने लगे। उन्होंने देखा कि बाजे वालों के पीछे एक सुन्दरी-सी पालकी में एक परम तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ आ रहा है। उसके चारों ओर बहुत-से आदमियों की भीड़ चल रही है। बस, उसे देखते ही महाप्रभु समझ गये कि हो-न-हो, ये ही राजा रामानन्द राय हैं। जब उन्होंने देखा वह ऐश्वर्यवान महापुरुष पालकी पर न चढ़कर मेरी ही ओर आ रहा है, तब तो उनके हृदयसागर में प्रेम की हिलोरें मारने लगीं, उन्हें निश्चय हो गया क राय रामानन्द ये ही हैं। उनका हृदय राय महाशय को आलिंगन-दान देने के लिये तड़फने लगा। उनकी बार-बार इच्छा होती थी कि जल्दी से दौड़कर इस महापुरुष को गले से लगा लूं, किन्तु कई कारणों से उन्होंने अपने इस भाव को संवरण किया। इतने में ही उस समृद्धशाली पुरुष ने भूमिष्ठ होकर महाप्रभु के चरणों में प्रणाम किया। उस पुरुष को प्रणाम करते देखकर प्रभु ने अत्यन्त ही स्नेह से एक अपरिचित पुरुष की भाँति पूछा- ‘क्या आपका ही नाम राजा रामानन्द राय है?’ दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए अत्यन्त ही विनीत भाव से राय महाशय ने उत्तर दिया- ‘भगवन! इस दीन-हीन, भक्ति-हीन शूद्राधम को रामानन्द कहते हैं?’ इतना सुनते ही प्रभु ने उठकर रामानन्द राय का आलिंगन किया और बड़े ही स्नेह के साथ कहने लगे- ‘राय महाशय! मुझे सार्वभौम भट्टाचार्य ने आपका परिचय दिया था; उन्हीं की आज्ञा शिरोधार्य करके केवल आपके ही दर्शनों की इच्छा से मैं विद्यानगर आया हूँ। मैं सोच रहा था कि आपसे भेंट किस प्रकार हो सकेगी, सो कृपासागर प्रभु का अनुग्रह तो देखिये, अकस्मात ही आपके दर्शन हो गये। आज आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हो गया। मेरी सम्पूर्ण यात्रा सफल हो गयी। मेरा संन्यास लेना सार्थक हो गया, जो आप-जैसे परम भागवत भक्त के मुझे स्वत: ही दर्शन हो गये।’ |