श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी102. वासुदेव कुष्ठीका उद्धार
हे अन्तर्यामिन ! आप तो घट-घट की जानने वाले हैं। आप ही साधु, संत, भक्त और संन्यासी आदि वेशों से पृथ्वी पर पर्यटन करते हुए संसारी कीचड़ में सने निराश्रित जीवों का उद्धार करते फिरते हैं। भगवन मेरा तो कोई दूसरा आश्रय ही नहीं, कुटुम्ब-परिवार वालों ने मेरा परित्याग कर दिया, समाज में मैं अस्पृश्य समझा जाता हूँ, कोई भी मुझसे बात नहीं करता। बस, केवल आप ही मेरे आश्रयस्थान हैं। मुझे दर्शनों से वंचित रखकर आप आगे क्यों चले गये?’ मानो वासुदेव की करुण-ध्वनि से दूर से ही प्रभु ने सुन ली। वे सहसा रास्ते से ही लौट पड़े और कूर्म के घर आकर रोते हुए वासुदेव को बड़े प्रेम से उन्होंने हृदय से लगा लिया। भय के कारण काँपता हुआ और जोरों से पीछे की ओर हटता हुआ वासुदेव कहने लगा- ‘भगवन ! आप मेरा स्पर्श न करें। मेरे शरीर में गलित कुष्ठ है। नाथ ! आपके सुवर्ण-जैसे सुन्दर शरीरम में यह अपवित्र पीब लग जायगा। प्रभो ! इस पापी का स्पर्श न कीजिये।’ किन्तु प्रभु कब सुनने वाले थे, वे तो भक्तवत्सल हैं। उन्होंने वासुदेव का दृढ़ आलिंगन करते हुए कहा- ‘वासुदेव ! तुम-जैसे भगवद्भक्तों का स्पर्श करके मैं स्वयं अपने को पावन करना चाहता हूँ। |