श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी99. सार्वभौम का भक्तिभाव
सार्वभौम ने पूछा- ‘प्रभो! भगवन्नाम स्मरण की प्रक्रिया क्या है?’ प्रभु ने कहा- ‘प्रक्रिया क्या! भगवन्नाम की कुछ ऐसी प्रक्रिया नहीं। जब भी समय मिले, जहाँ भी हो, जिस दशा में भी हो, भगवन्नामों का मुख से उच्चारण करते रहना चाहिये। भगवन्नाम का नियत संख्या में जप करो, जो भी अपने को अत्यन्त प्रिय हो ऐसे भगवान के रुप का ध्यान करो, भगवन्नामों का संकीर्तन करो, भगवान के गुणानुवादों का गायन करो, भगवान की परस्पर में कथन और श्रवण करो, सारांश यह है कि जिस-किसी भाँति भी हो सके अपने शरीर, प्राण, मन तथा इन्द्रियों को भगवत्परायण ही बनाये रखने की चेष्टा करो। सार्वभौम ने पूछा-‘प्रभो ! ध्यान कैसे किया जाय?’ प्रभु ने कहा- ‘अपनी वृत्ति को बाहरी विषयों की ओर मत जाने दो। काम करते-करते जब भी भगवान का रूप हमारी दृष्टि से ओझल हो जाय तो ऊर्ध्व दृष्टि करके (आँखों की पुतलियों को ऊपर चढ़ाकर) उस मनमोहिनी मूर्ति का ध्यान कर लेना चाहिये।’ इस प्रकार भगवन्नाम के सम्बन्ध में और भी बहुत-सी बातें होती रहीं। अन्त में जगदानन्द और दामोदर पण्डित को साथ लेकर सार्वभौम अपने घर चले गये। घर जाकर उन्होंने जगन्नाथ जी के प्रसाद के भाँति-भाँति के बहुत-से सुन्दर-सुन्दर पदार्थ सजाकर इन दोनों पण्डितों के हाथों प्रभु के लिये भेजे और साथ ही अपनी श्रद्धांजलिस्वरूप नीचे के दो श्लोक भी बनाकर प्रभु की सेवा में समर्पित करने के लिये दिये। वे श्लोक ये हैं- वैराग्यविद्यानिजभक्तियोग जगदानन्द और दामोदर पण्डित प्रभु के स्वभाव से पूर्णरीत्या परिचित थे। वे जानते थे कि महाप्रभु अपनी प्रशंसा सुन ही नहीं सकते। प्रशंसा सुनकर प्रसन्नता प्रकट करना तो दूर रहा उलटे वे प्रशंसा करने वाले पर नाराज होते हैं, इसलिये उन्होंने इन दोनों सुन्दर श्लोकों को बाहर दीवाल पर पहले लिख लिया। तब जाकर भोजन सामग्री के सहित वह पत्र प्रभु के हाथ में दिया। प्रभु ने उसे पढ़ते ही एकदम टुकड़े-टुकड़े करके बाहर फेंक दिया। किंतु भक्तों ने तो पहले से ही उन्हें लिख रखा था। उसी समय मुकुन्द उन्हें कण्ठस्थ करके बड़े ही सुन्दर स्वर से गाने लगे। सभी भक्तों को बड़ा आनन्द रहा। थोड़े ही दिनों में ये श्लोक सभी गौरभक्तों की वाणी के बहुमूल्य भूषण बन गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो दयासागर पुराणपुरुष अपने ज्ञान, वैराग्य और भक्तियोग की शिक्षा देने के निमित्त श्रीकृष्णचैतन्य नाम वाले शरीर को धारण करके प्रकट हुआ है, मैं उसकी शरण में प्राप्त होता हूँ।।43।।
समय के हेर-फेर से नष्ट हुए अपने भक्ति योग को फिर से प्रचार करने के निमित्त श्रीकृष्णचैतन्य नाम से जो अवनिपर अवतरित हुए हैं, उन श्रीचैतन्य-चरण-कमलों में मेरा चित्तरूपी भौंरा अत्यन्त लीन हो जाय।।44।। चैतन्य चन्द्रोदयनाटक अंक 6/43/-44