श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी91. श्रीगोपीनाथ क्षीरचोर
भगवान तो भाव के भूखे हैं, उन्हें किसी संसारी भोग की वांछा नहीं, वे तो भक्त का भक्ति-भाव ही देखना चाहते हैं। पुरी महाराज की अलौकिक श्रद्धा तो देखिये, भगवान की आज्ञा पाते ही चन्दन लेने के लिये भारत के एक छोर से समुद्र के किनारे दूसरे छोर पर आपत्ति-विपत्तियों की कुछ भी परवा न करते हुए प्रेम सहित चल दिये। अब भक्त की अग्नि-परीक्षा हो चुकी। वे उसमें खरे सोने के समान निर्मल होकर चमकते हुए ज्यों-के-त्यों ही निकल आये। अब भगवान ने भक्त को और अधिक क्लेश में डालना उचित नहीं समझा। उस समय मुसलमानी शासन में इतनी दूर तक चन्दन आदि को ले जाना बड़ा कठिन था। फिर स्थान-स्थान पर घोर युद्ध हो रहे थे, कहीं भी निर्विघ्न पथ नहीं था। इसीलिये भगवान ने पुरी महाराज को स्वप्न में आज्ञा दी- ‘श्री गोपीनाथ और मैं एक ही हूँ। तुम हमारे दोनों विग्रहों में किसी प्रकार की भेद-बुद्धि मत रखो। तुम इस चन्दन का लेप श्रीगोपीनाथ के ही विग्रह में करो। इसी से हमारा ताप दूर हो जायगा। हमारे वचनों पर विश्वास करके तुम नि:संकोच-भाव से इस चन्दन को यहीं पर घिसवाकर हमारे अभिन्न विग्रह में लगवा दो।’ पुरी महाराज को पहले जो स्वप्न में आदेश हुआ था, उसकी पूर्ति के लिये तो वे जगन्नाथ जी चन्दन लेने के लिये दौड़े आये थे, अब जो भगवान ने स्वप्न में आज्ञा दी उसे वे कैसे टाल सकते थे, इसीलिये भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करके वे वहीं ठहर गये और चन्दन घिसवाने के लिये दो आदमी नौकर और रख लिये। ग्रीष्मकाल के चार महीनों तक वहीं रहकर पुरी महाराज भगवान के अंग पर कर्पूर, चन्दन आदि का लेप कराते रहे और जब भगवान का ताप दूर हो गया, तो वे चतुर्मास बिताने के लिये निमित्त पुरी चले गये और वहाँ चार महीने निवास करके फिर अपने श्रीगोपाल के समीप लौट आये। इस प्रकार सभी भक्तों को श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी को उत्कट और अलौकिक प्रेम की कहानी कहते-कहते प्रभु का गला भर आया। प्रभु के दोनों नेत्रों से अश्रुधारा निकल-निकलकर उनके वक्ष:स्थल को भिगोने लगी। पुरी के महात्म्य का वर्णन करते-करते अन्त में उन्हें उस श्लोक का स्मरण हो आया जिसे पढ़ते-पढ़ते पुरी महाराज ने इस पांच भौतिक शरीर का परित्याग किया था। वे रुँधे हुए कण्ठ से उस श्लोक को बार-बार पढ़ने लगे-श्लोक पढ़ते-पढ़ते वे बेहोश होकर नित्यानन्द जी की गोद में गिर पड़े। अन्य उपस्थित भक्त भी प्रभु को रुदन करते देखकर जोरों से क्रन्दन करने लगे। उसी समय भगवान का भोग लगाकर शयन-आरती हुई। प्रभु ने सभी भक्तों के सहित शयन-आरती के दर्शन किये और फिर वहीं मन्दिर के समीप ही एक स्थान में रात्रि बिताने का निश्चय किया। पुजारियो ने लाकर भगवान के क्षीर-भोग के बारह पुत्र प्रभु के सामने रख दिये। प्रभु भगवान के उस महाप्रसाद के दर्शनमात्र से ही परम प्रसन्न हो उठे। प्रसन्नता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा- आज हमारा जन्म सफल हआ, जो हम गोपीनाथ भगवान के क्षीर के अधिकारी समझे गये। भगवान के प्रसाद के सम्बन्ध में लोभवृति करना ठीक नहीं है। हम पाँच ही आदमी हैं, अत: आप हमें पांच पात्र देकर सात पात्रों को उठा ले जाइये। भगवान के प्रसाद के अधिकारी सभी हैं। उसे अकेले-ही-अकेले पा लेना ठीक नहीं है। यह कहकर प्रभु ने पाँच पात्रों को ग्रहण करके शेष सात पात्रों को लौटा दिया। भगवान के उस अदभुत महाप्रसाद ने प्रभु ने अपने भक्तों के साथ श्रद्धासहित पाया और वह रात्रि वहीं भगवान के चरणों के समीप बितायी। |