श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी88. पुरी-गमन के पूर्व
महाप्रभु को अद्वैतवादी संन्यासियों की पद्धति से दीक्षा लेने और दण्ड धारण करने से अद्वैताचार्य जी को शंका हुई। उन्होंने प्रभु से पूछा- ‘प्रभो! आपने अद्वैतवादियों की भाँति यह संन्यास-धर्म क्यों ग्रहण किया? आपके सभी कार्य अलौकिक हैं, आपकी लीला जानी नहीं जा सकती।[1] इस प्रश्न को सुनकर कुछ मुसकराते हुए प्रभु ने कहा- ‘आचार्य देव! आप तो स्वयं विद्वान हैं। आप विचारकर स्वयं ही देंखे, क्या मैं अद्वैत के सिद्धान्त को नहीं मानता? आप ही सोचें, आप में और ईश्वर में चिह्नादि मात्र का ही प्रभेद दिखायी देता है। वस्तुत: तो दूसरा कोई अन्य भेद प्रतीत ही नहीं होता।’[2] इस उत्तर को सुनकर हँसते हुए अद्वैताचार्य कहने लगे- ‘धन्य हैं भगवान! आप तो वाणी के स्वामी हैं, आपके सामने तो कुछ कहते ही नहीं बनता।’[3] तब प्रभु ने बहुत ही गम्भीरता के साथ कहा- विना सर्वत्यागं भवति भजनं नह्यसुपते- ‘आचार्यदेव! इसमें द्वैत-अद्वैत की कौन-सी बातें है। असली बात तो यह है कि बिना सर्वस्व त्याग के किये हृदयवल्लभ प्राणरमण उन श्रीकृष्ण भजन हो ही नहीं सकता। इसीलिये मैंने सर्वस्व त्यागकर संन्यास ग्रहण किया है। यह मन तो अत्यन्त ही चंचल पशु के समान है, यह सदा स्थिर-भाव से श्रीकृष्ण–चरणों की सुखमय शीतल छाया में बैठकर विश्राम ही नहीं करता, सदा इधर-उधर भटकता ही रहता है। इसी को ताड़न करने के निमित्त मैंने यह दण्ड धारण किया है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अद्वैत-केयं लीला व्यरचि भवता योऽयमद्वैतभाजा-मत्यन्तेष्ठस्तमधृत भवानाश्रमं यत्तुरीयम् ।
- ↑ भगवान् विहस्य- भो अद्वैत स्मर किमु वयं नाद्वैतभाजो भेदस्तस्मिंस्त्वयि च यदि वा रूपतो लिङ्गतश्च। चै. चं. नाटक
- ↑ अद्वैत-वाणीश्वरेण किमुचितं वचनानुवचनम्। चै. चं. ना.
- ↑ चै. चं. ना.