श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी87. शचीमाता का संन्यासी पुत्र के प्रति मातृ-स्नेह
‘जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्वरानने।’ अर्थात ‘हे पार्वती जी! मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि जप से ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है।’ किसी भक्त को कोई शंका होती तो उसका समाधान प्रभु स्वयं करते। गंगा जी से लौटने पर संकीर्तन आरम्भ हो जाता। उन दिनों संकीर्तन में बड़ा ही अधिक आनन्द आता था। सभी भक्त आनन्द में बंसुद होकर नृत्य करने लगते। अद्वैताचार्य की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। वे अपने सौभाग्य की सराहना करते-करते अपने आपेको भूल जाते। अपने घर में नित्यप्रति ऐसे समारोह के उत्सव को देखकर उनकी अन्तरात्मा बड़ी ही प्रसन्न होती। कीर्तन के समय वे जोरों से भावावेश में आकर नृत्य करने लगते। नृत्य करते-करते वृद्ध आचार्य अपनी अवस्था को एकदम भूल जाते और युवकों की तरह उछल-उछलकर, कूद-कूदकर नाचने लगते। नाचते-नाचते बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ते। घंटों इसी प्रकार बेहोश हुए पड़े रहते। भक्तों के उठाने पर बड़ी कठिनता से उठते। महाप्रभु अब संकीर्तन में बहुत कम नृत्य करते थे; किंतु जिस दिन भावावेश में आकर नृत्य करने लगते, उस दिन उनकी दशा बहुत ही विचित्र हो जाती। उनके सम्पूर्ण शरीर के रोम बिलकुल सीधे खड़े हो जाते, नेत्रों से अश्रुओ की धारा बहने लगती, मुंह से झाग निकलने लगते और ‘हरि, हरि’ बोलकर इतने जोरों से नृत्य करते थे कि देखने वालों की यही प्रतीत होता था कि प्रभु आकाश में स्थित होकर नृत्य कर रहे हैं। भक्तगण आनन्द में विह्वल होकर प्रभु के चरणों के नीचे की धूलि को उठाकर अपने सम्पूर्ण शरीर में मल लेते और अपने जीवन को सफल हुआ समझते। इस प्रकार दस दिनों तक प्रभु ने अद्वैताचार्य के घर पर निवास किया। |