श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
10. निमाई
षष्ठी देवी के स्थान पर जाकर शचीदेवी ने श्रद्धा भक्ति के साथ देवी का पूजन किया और वे बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त देवी के चरणों में प्रार्थना करके सखी-सहेलियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आयीं। बालक ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था, त्यों-ही-त्यों उसकी चंचलता भी बढ़ती जाती थी। विश्वरूप जितने अधिक शान्त थे, गौरंग उतने ही अधिक चंचल थे। एक महीने के ही थे कि अपने-आप ही आँगन में घुटनों के सहारे रेंगने लगते थे। चलते-चलते जोर से किलकारियाँ मारने लगते, कभी-कभी अपने-आप ही हँसने लगते। माता इन्हें पकड़ती, किन्तु इन्हें पकड़ना सहज काम नहीं था। ये स्तन पीते-ही-पीते कभी इतने जोर से दौड़ते कि फिर इन्हें रोक रखना असम्भव ही हो जाता था। पहले-पहले ये बहुत रोते थे, माता भाँति-भाँति से इन्हें चुप करने की चेष्टा करती किन्तु ये चुप ही नहीं होते थे। एक दिन ये छोटे खटोलने पर पड़े-पड़े बहुत जोरों से रो रहे थे। माता ने बहुत चेष्टा की किन्तु ये चुप नहीं हुए। तब तो माता इन्हें ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द निमाई बोल।।’ यह पद गा-गाकर धीरे-धीरे हिलाने लगीं। बस, इसका श्रवण करना था कि ये चुप हो गये। माता को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्हें चुप करने का एक सहज ही उपाय मिल गया। जब कभी ये रोते तभी माता अपने कोमल कण्ठ से गाने लगती-
हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।
इसे सुनते ही ये झट चुप हो जाते। इनके मुहल्ले की स्त्रियाँ इन्हें बहुत ही अधिक प्यार करती थीं, इसलिये घर के काम से निवृत्त होते ही वे शची देवी के घर आ बैठती। शचीदेवी का स्वभाव बड़ा ही मधुर था। उनके घर जो भी आती उसी का खूब प्रेमपूर्वक सत्कार करतीं और घर का काम-काज छोड़कर उनसे बातें करने लगतीं। इसलिये सभी भली स्त्रियाँ अपना अधिकांश समय शचीदेवी के यहाँ बितातीं। वे सभी मिलकर गौरांग को खिलाती थीं। बच्चे की जिसमें प्रसन्नता हो खिलाने वाले उसी काम को बार-बार करते हैं। गौरांग हरि-नाम संकीर्तन से ही परम प्रसन्न होते थे और सुनते-सुनते किलकारियाँ मारने लगते, इसलिये स्त्रियाँ बार-बार उसी पद को गातीं। कभी-कभी सब मिलकर एक स्वर से कीर्तन के पदों का गान करती रहतीं। इस प्रकार दिनभर शचीदेवी के घर में-
हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।
इसी पद की ध्वनि गूँजती रहती। इस प्रकार धीरे-धीरे बालक की अवस्था चार मास की हुई। मिश्र जी ने शुभ मुहूर्त में बालक के नामकरण-संस्कार की तैयारियाँ कीं। अपने सहपाठी प्रेमी पण्डितों को उन्होंने निमन्त्रित किया। ब्राह्मणों ने विधि-विधान के साथ वेद-पाठ और हवन किया।
|