श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी79. परम सहृदय निमाई की निर्दयता
वियोगजन्य दु:ख की आशंका से भयभीता हिरणों की भाँति डरते-डरते विष्णुप्रिया ने प्रभु के शयन-गृह में प्रवेश किया। उनकी आँखों में से निरन्तर अश्रु बह रहे थे। प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘प्रिये! मैं तुम्हारे हंसते हुए मुख-कमल को एक बार देखना चाहता हूँ। तुम एक बार प्रसन्न होकर मेरी ओर देखो।’ विष्णुप्रिया जी चुप ही रहीं, उन्होंने प्रभु की बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब प्रभु आग्रह के स्वर में कहने लगे- ‘विष्णुप्रिया! तुम बोलती क्यों नहीं, क्या सोच रही हो?’ आँसू पोछते हुए विष्णुप्रिया ने कहा- ‘प्रभो! न जाने क्यों आज मेरा दिल धड़क रहा है। मेरा हृदय आप-से-आप ही फटा-सा जाता है। पता नहीं क्या बात है?’ प्रभु ने बात को टालते हुए कहा- ‘तुम सदा सोच करती रहती हो, उसी का यह परिणाम है। अच्छा, तुम हँस दो, देखो अभी तुम्हारा सभी शोक-मोह दूर होता है या नहीं?’ विष्णुप्रिया जी ने प्रेमपूर्ण कुछ रोष के स्वर में कहा- ‘रहने भी दो! तुम तो ऐसे ही मुझे बनाया करते हो। ऐसे समय में तो तुम्हें ही हँसी आ सकती है। मेरा तो हृदय रुदन कर रहा है। फिर कैसे हँसूँ? हँसी तो भीतर की प्रसन्नता से आती है।’ विष्णुप्रिया जी को पता चल गया कि अवश्य ही पतिदेव आज ही मुझे अनाथिनी बनाकर गृह-त्याग करेंगे, किंतु उन्होंने प्रभु के सम्मुख इस बात को प्रकट नहीं किया। वे रात्रि भर प्रभु के चरणों को दबाती रहीं। प्रभु ने भी आज उन्हें बड़े प्रेम के साथ अनेकों बार गाढ़लिंगन कर-कर के परम सुखी बना दिया। किंतु विष्णुप्रिया को पति के आज के इन आलिंगनों में विशेष सुख का अनुभव नहीं हुआ। जिस प्रकार शूली पर चढ़ने वाले को उस समय भाँति-भाँति की स्वादिष्ट मिठाइयाँ रुचिकर प्रतीत नहीं होतीं, उसी प्रकार विष्णुप्रिया को वह पति का इतना अधिक स्नेह और अधिक पीड़ा पहुँचाने लगा। माता को तो पहले से ही पता था कि निमाई आज घर छोड़कर चला जायगा, वे दरवाजे की चौखट पर पड़ी हुई रात्रिभर आह भरती रहीं। विष्णुप्रिया भी प्रभु के पैरों को पकडे़ रात्रि भर ज्यों-की-त्यों बैठी रहीं। माघ का महीना था, शुक्लपक्ष का चन्द्रमा अस्त हो चुका था। दो घड़ी रजनी शेष थी। सम्पूर्ण नगर के नर-नारी सुख की निद्रा में सोये हुए थे; किंतु महाप्रभु को नींद कहाँ, वे तो संन्यास की उमंग में भूख-प्यास, सुख-निद्रा आदि को एकदम भुलाये हुए थे। विष्णुप्रिया उनके पैरों को पकडे़ बैठी हुई थीं। प्रभु उनसे छूटकर भाग निकलने का सुअवसर ढूढ़ रहे थे। भावी बड़ी प्रबल है, जो होनहार होता है, वैसे ही उसके लिये साधन भी जुट जाते हैं, रात्रि भर की जागी हुई विष्णुप्रिया को नींद आ गयी। वह प्रभु की शय्यापर ही उनके चरणों में पड़कर सो गयीं। रात्रि भर की जागी हुई थीं, इसलिये पड़ते ही गाढ़ निद्रा ने आकर उनके ऊपर अपना अधिकार जमा लिया। |