श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी77. शचीमाता और गौरहरि
‘तुम वीर-जननी हो। विश्वरूप-जैसे महापुरुष की माता होने का सौभाग्य तुम्हें प्राप्त हुआ है। तुम्हें इस प्रकार का विलाप शोभा नहीं देता। ध्रुव की माता सुनीति ने अपने प्राणों से भी प्यारे पाँच वर्ष की अवस्था वाले अपने इकलौते पुत्र को तपस्या करने के लिये जाने की आज्ञा प्रदान कर दी थी। भगवान श्रीरामचन्द्रजी की माता ने पुत्र वधू सहित अपने इकलौते पुत्र को वन जाने की अनुमति दे दी थी। सुमित्रा ने दृढ़तापूर्वक घर में पुत्रवधू रहते हुए भी लक्ष्मण को आग्रहपूर्वक श्रीरामचन्द्र जी के साथ वन में भेज दिया था। मदालसा ने अपने सभी पुत्रों को संन्यास धर्म की दीक्षा दी थी। तुम क्या उन माताओं से कुछ कम हो? जननि! तुम्हारें चरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। तुम मेरे काम में पुत्रस्नेह के कारण बाधा मत पहुँचाओ! मुझे प्रसन्नतापूर्वक संन्यास ग्रहण करने की अनुमति दो और ऐसा आशीर्वाद दो कि मैं अपने इस व्रत को भलीभाँति निभा सकूँ।’ माता ने आंसुओं को पोंछते हुए कहा- ‘बेटा! मैंने आज तक तेरे किसी भी काम में हस्तक्षेप नहीं किया। तू जिस काम में प्रसन्न रहा, उसी में मैं यदा प्रसन्न बनी रही। मैं चाहे भूखी बैठी रही, किंतु तुझे हजार जगह से लाकर तेरी रुचि के अनुसार सुन्दर भोजन कराया। मैं तेरी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकती। किंतु घर में रहकर क्या भगवद्भजन नहीं हो सकता? यहीं पर श्रीवास, गदाधर, मुकुन्द, अद्वैताचार्य- इन सभी भक्तों को लेकर दिन-रात्रि भजन-कीर्तन करता रह। मैं तुझे कभी भी न रोकूँगी। बेटा! तू सोच तो सही, इस अबोध बालिका विष्णुप्रिया की क्या दशा होगी? इसने तो अभी संसार का कुछ भी सुख नहीं देखा। तेरे बिना यह कैसे रह सकेगी? मेरा तो विधान ने वज्र का हृदय बनाया है। विश्वरुप के जाने पर भी यह नहीं फटा और तेरे पिता के परलोक-गमन करने पर भी यह ज्यों-का-त्यों ही बना रहा। |