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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
66. जगाई-मधाई का पश्चात्ताप
हाथ जोडे़ हुए अत्यन्त दीनता के साथ इन दोनों ने कहा- ‘प्रभो! हमें आपके ऊपर पूर्ण विश्वास है, हम अपने पापों के लिये नहीं रो रहे हैं, यदि हमें पापों का फल भोगना होता, तब तो परम प्रसन्नता होती, हमें तो आपके अहैतु की कृपा के ऊपर रुदन आता है। आपने हम-जैसे पतित और नीचों के ऊपर जो इतनी अपूर्व कृपा की है, उसका रह-रहकर स्मरण होता है और रोकने पर भी हमारे अश्रु नहीं रुकते।' प्रभु ने इन्हें भाँति-भाँति से आश्वासन दिलाया। जगाई तो प्रभु के आश्वासन से थोड़ा-बहुत शान्त भी हुआ, किंतु मधाई का पश्चात्ताप कम न हुआ। उसे रह-रहकर वह घटना याद आने लगी, जब उसने निरपराध नित्यानन्द जी के मस्तक पर निर्दयता के साथ प्रहार किया था। इसके स्मरण मात्र से उसके रोंगटे खडे़ हो जाते और वह जोरों के साथ रुदन करने लगते। ‘हाय! मैंने कितनी बड़ी निचता की थी। एक महापुरुष को अकारण ही इतना भारी कष्ट पहुँचाया। यदि उस समय भगवान का सुदर्शनचक्र आकर मेरा सिर काट लेता या नित्यानन्द जी ही मेरा वध कर डालते तो मैं कृतकृत्य हो जाता। वध करना या कटुवाक्य कहना तो अलग रहा, वे महामहिम अवधूत तो उलटे मेरे कल्याण के निमित्त प्रभु से प्रार्थना ही करते रहे और प्रसन्नचित्त से भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए हमारा भला ही चाहते रहे। इस प्रकार वह सदा इसी सोच में रहता।
एक दिन एकान्त में मधाई ने जाकर श्रीपाद नित्यानन्द जी ने चरण पकड़ लिये और रोते-रोते प्रार्थना की- ‘प्रभो! मैं अत्यन्त ही नीच और पामर हूँ। मैंने घोर पाप किये हैं। उन सब पापों को तो भुला भी सकता हूँ। किंतु आपके ऊपर जो प्रहार किया था, वह तो भूलाने से भी नहीं भूलता। जितना ही उसे भुलाने की चेष्टा करता हूं, उतना ही वह मेरे हृदय में और अधिक भीतर गड़ता जाता है। इसकी निष्कृतिका का मुझे कोई उपाय बताइये। जब तक आप इसके लिये मुझे कोई उपाय न बतावेंगे, तब तक मुझे आन्तरिक शान्ति कभी भी प्राप्त न हो सकेगी।'
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