श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
61. प्रेमोन्मत्त अवधूत का पादोदकपान
प्रभु उस समय अपनी प्राणेश्वरी विष्णुप्रिया जी के साथ बैठे हुए कुछ प्रेम की बातें कर रहे थे, विष्णुप्रिया धीरे-धीरे पान लगा-लगाकर प्रभु को देती जाती थीं और प्रभु उनकी प्रसन्नता के निमित्त बिना कुछ कहे खाते जाते थे। वे कितने पान खा गये होंगे, इसका न तो विष्णुप्रिया जी को ही पता था, न प्रभु को ही। पान का तो बहाना था, असल में तो वहाँ प्रेम का खान-पान हो रहा था। इतने में ही नंगे-घड़ंगे उन्मत्त अवधूत पहुँच गये। आँखे लाल-लाल हो रही हैं, सम्पूर्ण शरीर धूलिधूसरित हो रहा है। लंगोटी सिर से लिपटी हुई है। शरीर से खूब लंबे होने कारण दिगम्बर वेश में ये दूर से देव की तरह दिखायी पड़ते थे। प्रभु के समीप आते ही ये पागलों की तरह हुं-हुं करने लगे। विष्णुप्रिया जी इन्हें नग्न देखकर जल्दी से घर में भाग गयीं और जल्दी से किवाड़ बंद कर लिये। शचीमाता भीतर बैठी हुई चर्खा चला रही थीं, अपनी बहू को इस प्रकार दौड़ते देखकर उन्होंने जल्दी से पूछा-‘क्यों, क्यों क्या हुआ?’
विष्णुप्रिया मुंह में वस्त्र देकर हंसने लगीं। माता ने समझा निमाई ने जरूर कुछ कौतूहल किया है। अत: वे पूछने लगीं- ‘निमाई यहीं है या बाहर चला गया?’
अपनी हंसी को रोकते हुए हांफते-हांफते विष्णुप्रिया जी ने कहा- ‘अपने बड़े बेटे को तो देखो, आज तो वे सचमुच ही अवधूत बन आये हैं।’ यह सुनकर माता बाहर गयीं और निताई की इस प्रकार की बाल-क्रीड़ाको देखकर हंसने लगी।
प्रभु ने नित्यानंद जी से पूछा- ‘श्रीपाद! आज तुमने यह क्या स्वांग बना लिया है? बहुत चंचलता अच्छी नहीं। जल्दी से लंगोटी बांधो।’ किंतु किसी को लंगोटी की सुधि हो तब तो उसे बांधे। उन्हें पता ही नहीं कि लंगोटी कहाँ है और उसे बांधना कहाँ होगा? प्रभु ने इनकी ऐसी दशा देखकर जल्दी से अपना पट्ट-वस्त्र इनकी कमर में स्वयं ही बांध दिया और हाथ पकड़कर अपने पास बिठाकर धीरे-धीरे पूछने लगे- ‘श्रीपाद! कहाँ से आ रहे हो? तुम्हें हो क्या गया है? यह धूलि सम्पूर्ण शरीर में क्यों लगा ली है।'
श्रीपाद तो गर्क थे, उन्हें शरीर का होश कहाँ, चारों ओर देखते हुए पागलों की तरह ‘हुँ-हुँ’ करने लगे। प्रभु इन की प्रेम की इतनी उँची अवस्था को देखकर अत्यंत ही प्रसन्न हुए। उसी समय उन्होंने सभी भक्तों को बुला लिया। भक्त आ-आकर नित्यानंद जी के चारों बैठने लगे। प्रभु ने नित्यानंद जी से प्रार्थना की- ‘श्रीपाद! अपनी प्रसादी लंगोटी कृपा करके हमें प्रदान कीजिये।’ नित्यानंद जी ने जल्दी से सिरपर लंगोटी खोलकर फेंक दी। प्रभु ने वह लंगोटी अत्यंत ही भक्तिभाव के साथ सिरपर चढ़ायी और फिर उसके छोटे-छोटे बहुत-से टुकड़े किये। सभी भक्तों को एक-एक टुकड़ा देते हुए प्रभु ने कहा- ‘इस प्रसादी चीर को आप सभी लोग खूब सुरक्षित रखना।' प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके सभी ने उस प्रसादी चीर को गले में बांध लिया, किसी-किसी ने उसे मस्तक पर रख लिया।
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