श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी59. भक्तों को भगवान के दर्शन
श्रीधर का घर बहुत दूर नगर के दूसरे कोने पर था। सुनते ही चार-पाँच भक्त दौड़े गये। उस समय श्रीधर आनन्द में पड़े हुए श्रीहरि के मधुर नामों का संकीतन कर रहे थे। लोगों ने जाकर किवाड़ खटखटाये। ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव’ कहते-कहते ही इन्होंने कहा- ‘कौन है?’ भक्तों ने जल्दी से कहा- ‘किवाड़ तो खोलो, तब स्वयं ही पता चल जायगा कि कौन है? जल्दी से किवाड़ तो खोलो।’ यह सुनकर श्रीधर ने किवाड़ खोले और बड़ी ही नम्रता के साथ भक्तों से आने का कारण पूछा। भक्तों ने जल्दी से कहा- ‘प्रभु ने तुम्हें स्मरण किया है। चलो, जल्दी चलो।’ हम दीन-हीन कंगाल को प्रभु ने स्मरण किया है, यह सुनते ही श्रीधर मारे प्रेम के बेसुध हो गये। वे हाय कहकर एकदम धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़े। उन्हें शरीर की सुध-बुध भी न रही। भक्तों ने सोचा- यह तो एक नयी आफत आयी, किंतु प्रभु की आज्ञा तो पूर्ण करनी ही है, भक्तों ने मूर्च्छित श्रीधर को कंधों पर उठा लिया और उसी दशा में उन्हें प्रभु के पास लाये। श्रीधर अभी अचैतन्य-दशाही में थे, प्रभु ने अपने कोमल करकमलों से उनका स्पर्श किया। प्रभु का स्पर्श पाते ही श्रीधर चैतन्य हो गये। श्रीधर को चैतन्य तक देखकर प्रभु उनसे कहने लगे- ‘श्रीधर! तुम हमारे रूप के दर्शन करो। तुम्हारी इतने दिनों की मनःकामना पूर्ण हुई।’ श्रीधर ने रोते-रोते प्रभु के तेजोमय रूप के दर्शन किये। फिर प्रभु ने उन्हें स्तुति करने की आज्ञा दी। श्रीधर हाथ जोड़े हुए गद्गदकण्ठ से कहने लगे- ‘मैं दीन-हीन पतित तथा लोक-बहिष्कृत अधम पुरुष भला प्रभु की क्या स्तुति कर सकता हूँ। प्रभो! मैं बड़ा ही अपराधी हूँ। आपकी यथार्थ महिमा को न समझकर मैं सदा आपसे झगड़ा ही करता रहा। आप मुझे बार-बार समझाते, किंतु माया के चक्कर में पड़ा हुआ मैं अज्ञानी आपके गूढ़ रहस्य को ठीक-ठीक न समझ सका। आज आपके यथार्थरूप के दर्शन से मेरा अज्ञानान्धकार दूर हुआ। अब मैं प्रभु के सम्मुख अपने समस्त अपराधों की क्षमा चाहता हूँ।’ प्रभु ने गद्गदकण्ठ से कहा- ‘श्रीधर! हम तुम्हारे ऊपर बहुत संतुष्ट हैं। तुम अब हमसे अपनी इच्छानुसार वर माँगो! ऋद्धि, सिद्धि, धन, दौलत, प्रभुता जिसकी तुम्हें इच्छा हो वही माँग लो। बोलो, क्या चाहते हो?’ हाथ जोड़े हुए अत्यन्त ही दीनभाव से गद्गदकण्ठस्वर में श्रीधर ने कहा- ‘प्रभो! मैंने क्या नहीं पा लिया? संसार मेरी उपेक्षा करता है। मेरे पूछने पर भी कंगाल समझकर लोग मेरी बात की अवहेलना कर देते हैं, ऐसे तुच्छ कंगाल को आपने अनुग्रह करके बुलाया और अपने देव-दुर्लभ दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया। अब मुझे और चाहिये ही क्या? ऋद्धि-सिद्धि को लेकर मैं करूँगा ही क्या? वह भी तो एक प्रकार की बड़ी माया ही है।’ |