श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी58. सप्तप्रहरिया भाव
वासुदेव घोष, मुरारी गुप्त और मुकुन्द दत्त- ये तीनों उस महाप्रकाश के समय वहाँ मौजूद थे। ये तीनों ही वैष्णवों में प्रसिद्ध पदकार हुए हैं। इन तीनों ने चैतन्यचरित्र लिखा है। इन्होंने अपनी आँखेां का प्रत्यक्ष देखा हुआ वर्णन किया है, इतने पर भी विश्वास न करने वाले विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे इस विषय से एकदम अनभिज्ञ हैं। उनकी बुद्धि भौतिक पदार्थों के अतिरिक्त् ऐसे विषयों में प्रवेश ही नहीं कर सकती। किंतु जिनका परमार्थ-विषय में तनिक भी प्रवेश होगा, उन्हें इस विषय के श्रवण से बड़ा सुख मिलेगा, इसलिये अब ‘महाप्रकाश’ का वृत्तान्त सुनिये। एक दिन प्रातःकाल ही सब भक्त श्रीवास पण्डित के घर पर जुटने लगे। एक-एक करके सभी भक्त वहाँ एकत्रित हो गये। उनमें से प्रधान-प्रधान भक्तों के नाम ये हैं- अद्वैताचार्य, नित्यानन्द, श्रीवास, गदाधर, मुरारी गुप्त, मुकुन्द दत्त, नरहरि, गंगादास, महाप्रभु के मौसा चन्द्रशेखर आचार्यरत्न, पुरुषोत्तम आचार्य (स्वरूपदामोदर) वक्रेश्वर, दामोदर, जगदानन्द, गोविन्द, माधव, वासुदेव घोष, सारंग तथा हरिदास आदि-आदि। इनके अतिरिक्त और भी बहुत-से भक्त वहाँ उपस्थित थे। एक प्रहर दिन चढ़ते-चढ़ते प्रायः सभी मुख्य-मुख्य भक्त श्रीवास पण्डित के घर आ गये थे कि इतने में ही प्रभु पधारे। प्रभु के पधारते ही भक्तों के हृदयों में एक प्रकारके नवजीवन का-सा संचार होने लगा। और दिन तो प्रभु अन्य भक्तों की भाँति आकर बैठ जाते और सभी के साथ मिलकर भक्ति-भाव से बहुत देर तक संकीर्तन करते रहते, तब कहीं जाकर किसी दिन भगवत-आवेश होता, किंतु आज तो सीधे आकर एकदम भगवान के सिंहासन पर बैठ गये। सिंहासन की मूर्तियाँ एक ओर हटा दीं और आप शान्त, गम्भीर भाव से भगवान के आसन पर आसीन हो गये। इनके बैठते ही भक्तों के हृदयों में एक प्रकार का विचित्र-सा प्रकाश दिखायी देने लगा। सभी आश्चर्य और सम्भ्रम के भाव से प्रभु के श्रीविग्रह की ओर देखने लगे। किंतु किसी को उनकी ओर बहुत देर तक देखने का साहस ही नहीं होता था। भक्तों को उनका सम्पूर्ण शरीर तेजोमय परम प्रकाशयुक्त दिखायी देने लगा। जिस प्रकार हजारों सूर्य-चन्द्रमा एक ही स्थान पर प्रकाशित हो रहे हों। बहुत प्रयत्न करने पर भी किसी की दृष्टि बहुत देर तक प्रभु के सम्मुख टिक नहीं सकती थी। एकदम, चारों ओर विमल-धवल प्रकाश की ज्योतिर्मय किरणें छिटक रही थीं। मानो अग्नि की शुभ्र ज्वाला में से बड़े-बड़े विस्फुलिंग इधर-उधर उड़-उड़कर अन्धकार का संहार कर रहे हों। प्रभु के नखों की ज्योति आकाश में बड़े-बड़े नक्षत्रों की भाँति स्पष्ट ही पृथक-पृथक दिखायी पड़ती थी। उनका चेहरा देदीप्यमान हो रहा था। |