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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
56. हरिदास की नाम-निष्ठा
एक प्रकार से उस समय के कर्ता-धर्ता तथा विधाता धर्म के ठेकेदार क़ाज़ी ही थे। शासन-सत्ता पर पूरा प्रभाव होने के कारण क़ाज़ी उस समय के बादशाह ही समझे जाते थे। फुलिया के आसपास में गोराई नाम का एक क़ाज़ी भी इसी काम के लिये नियुक्त था। उसने जब हरिदास जी का इतना प्रभाव देखा तब तो उसकी ईर्ष्या का ठिकाना नहीं रहा। वह सोचने लगा- ‘हरिदास के इतने बढ़ते प्रभाव को यदि रोका न जायगा तो इस्लाम धर्म को बड़ा भारी धक्का पहुँचेगा। हरिदास जाति का मुसलमान है। मुसलमान होकर वह हिन्दुओं के धर्म का प्रचार करता है। सरह की रूप से वह कुफ्र करता है। वह काफिर है, इसलिये काफिर को कत्ल करने से भी सबाब होता है। दूसरे लोग भी इसकी देखा-देखी ऐसा ही काम करेंगे। इसलिये इसे दरबार से सजा दिलानी चाहिये। यह सोचकर गोराई क़ाज़ी ने इनके विरुद्ध राजदरबार में अभियोग चलाया। राजाज्ञा से हरिदास जी गिरफ्तार कर लिये गये और मुलुकपति के यहाँ इनका मुकद्दमा पेश हुआ। मुलुकपति इनके तेज और प्रभाव को देखकर चकित रह गया। उसने इन्हें बैठने के लिये आसन दिया। हरिदासजी के बैठ जाने पर मुलुकपति ने दया का भाव दर्शाते हुए अपने स्वाभाविक धार्मिक विश्वास के अनुसार कहा- ‘भाई! तुम्हारा जन्म मुसलमान के घर हुआ है। यह भगवान की तुम्हारे ऊपर अत्यन्त ही कृपा है। मुसलमान के यहाँ जन्म लेकर भी तुम काफिरों के-से आचरण क्यों करते हो? इससे तुमको मुक्ति नहीं मिलेगी। मुक्ति का तो साधन वही है जो इस्लामधर्म की पुस्तक कुरान में बताया गया है। हमें तुम्हारे ऊपर बड़ी दया आ रही है, हम तुम्हें दण्ड देना नहीं चाहते। तुम अब भी तोबा (अपने पाप का प्रायश्चित्त) कर लो और कलमा पढ़कर मुहम्मद साहब की शरण में आ जाओ! भगवान तुम्हारे सभी अपराधों को क्षमा कर देंगे और तुम भी मोक्ष के अधिकारी बन जाओगे।’
मुलुकपति की ऐसी सरल और सुन्दर बातें सुनकर हरिदास जी ने कहा- ‘महाशय! आपने जो भी कुछ कहा है, अपने विश्वास के अनुसार ठीक ही कहा है, हरेक मनुष्य का विश्वास अलग-अलग तरह का होता है। जिसे जिस तरह का दृढ़ विश्वास होता है, उसके लिये उसी प्रकार का विश्वास फलदायी होता है। दूसरों के धमकाने से अथवा लोभ से जो अपने स्वाभाविक विश्वास को छोड़ देते हैं, वे भीरू होते हैं। ऐसे पुरुषों को परमात्मा की प्राप्ति कभी भी नहीं होती। आप अपने विश्वास के अनुसार उचित ही कह रहे हैं, किंतु मैं दण्ड के भय से यदि भगवन्नाम-कीर्तन को छोड़ दूँ, तो इससे मुझे पुण्य के स्थान में पाप ही होगा। ऐसा करने से मैं नरक का भागी बनूँगा। मेरी भगवन्नाम में स्वाभाविक ही निष्ठा है, इसे मैं छोड़ नहीं सकता। फिर चाहे इसके पीछे मेरे प्राण ही क्यों न ले लिये जायँ।
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