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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
7. गीता में भगवन्नाम
ज्ञातव्य
शंका- नामजप में मन नहीं लगता और मन लगे बिना नाम जप करने में कुछ फायता नहीं! कहा भी है-
समाधान- मन नहीं लगेगा तो ‘सुमिरन’ (स्मरण) नहीं होगा- यह बात सच्ची है, पर नाम जप नहीं होगा- यह बात दोहे में नहीं कही गयी है। मन नहीं लगने से सुमिरन नहीं होगा तो नहीं सही, पर नामजप तो हो ही जाएगा! नामजप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; अतः मन लगे चाहे न लगे, नाम- जप करते रहना चाहिए। जब मन लगेगा, तब नामजप करेंगे- ऐसा होना संभव नहीं है। हाँ, अगर हम नाम जप करने लग जाएँ तो मन भी लगने लग जाएगा; क्योंकि मनका लगना नामजप का परिणाम है।
उत्तर- जो नाम नहीं सुनना चाहता, मुख से भी नहीं लेना चाहता, नाम तिरस्कार करता है, उसको नाम नहीं सुनाना चाहिए- यह विधि है, शास्त्र की आज्ञा है; फिर भी संत महापुरुष दया करके उसको नाम सुना देते हैं। उनकी दया में विधि निषेध लागू नहीं होता। विधि-निषेध ‘कर्म’ में लागू होता है और ‘दया’ कर्म से अतीत है। दया अहैतु की होती है, हेतु के बिना की जाती है। जैसे, कोई भगवत्प्राप्त संत-महापुरुष अपनी सामर्थ्य से दूसरे को कोई चीज देता है तो यह चीज लेने वाले के पूर्वकर्म का फल नहीं है, यह तो उस संत महापुरुष की दया है। ऐसे ही गौरांग महाप्रभु आदि संतों ने दया-परवश होकर दुष्ट, पापी व्यक्तियों को भी भगवन्नाम सुनाया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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