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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
7. गीता में भगवन्नाम
ज्ञातव्य
उत्तर- कलियुग में यज्ञादि शुभ-कर्मों का सांगोंपांग होना बहुत कठिन है और उनके विधि विधान को ठीक तरह से जानने वाले पुरुष भी बहुत कम रह गये हैं तथा शुद्ध गौघृत आदि सामग्री मिलनी भी कठिन हो रही है। अतः कलियुग में शुभ कर्मों का अनुष्ठान सांगोपांग न होने से, उसमें विधि-विधान की कमी रहने से कर्ता को दोष लगता है। वैधीभक्ति विधि-विधान से की जाती हैं। उसमें किस इष्टदेव का किस विधि से पूजा पाठ होना चाहिए- इसको जानने वाले बहुत कम हैं। अतः वह भक्ति करना भी इस कलियुग में कठिन है। ज्ञानमार्ग कठिन है और ज्ञानमार्ग की साधना बताने वाले अनुभवी पुरुषों का मिलना भी बहुत कठिन है। अतः विवेकमार्ग में चलना कलियुग में बहुत कठिन है। तात्पर्य है कि इस कलियुग में कर्म, भक्ति और ज्ञान- इन तीनों का होना बहुत कठिन है, पर भगवान् का नाम लेना कठिन नहीं है। भगवान् का नाम सभी ले सकते हैं; क्योंकि उसमें कोई विधि-विधान नहीं है। उसको बालक, स्त्री, पुरुष, वृद्ध रोगी आदि सभी ले सकते हैं और हर समय, हर परिस्थिति में, हर अवस्था में ले सकते हैं। नाम एक संबोधन है, पुकार है। उसमें आर्तभाव की ही मुख्यता है, विधि की मुख्यता नहीं। अतः भगवान् का नाम लेकर हरेक मनुष्य आर्तभाव से भगवान् को पुकार सकता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (मानस 1।27।4)
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