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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
107. गीता में आर्ष प्रयोग
व्याकरण शास्त्र में बाहुलक चार प्रकार का माना गया है-
इसी प्रसंग में ‘व्यत्ययो बहुलम्’[1]- इस सूत्र से छन्द में विकरणों का बहुल प्रकार से व्यत्यय कहा गया है। यहाँ महाभाष्यकार पतंजलि का कथन है कि विकरणों के अतिरिक्त सुप्, तिङ्, उपग्रह (आत्मनेपद- परस्मैपद), लिंग, प्रथम आदि पुरुष, भूतादि कालवाची प्रत्यय, हल अच् उदात्तादि स्वर, कर्ता आदि कारक, यङ् अर्थात् ‘धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ्’[2] सूत्रघटक ‘यङ्’ के यकार से लेकर ‘लिङ्याशिष्यङ्’[3] सूत्रघटक ‘अङ्’ के ङकारपर्यन्त प्रत्याहार मानकर तन्मध्यवर्ती स्य-तासि-शप्-श्यन् आदि विकरण, च्लिस्थानीय सिजादि आदेश, आम्, यङ्, णिच्, णिङ्, आय्, इयङ्- इनका व्यत्यय भी व्याकरण शास्त्रकर्ता आचार्य पाणिनि को अभीष्ट है और वह बाहुलक से सिद्ध है; अतः सूत्र में ‘बहुलम्’ पद प्रयुक्त हुआ है। ‘सुपां सुलुक्पूर्व-सवर्णाच्छेयाडाड्यायाजालः’[4]- इस सूत्र में वेद में सुप् के स्थान पर सुलुक्, पूर्वसवर्ण, आ आत् शे, या, डा, ड्या, आच् और आल् आदेश होते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (पाणिनी. अष्टा. 3।1।85)
- ↑ (पाणिनी. अष्टा. 3।1।22)
- ↑ (पाणिनि. अष्टा. 3।1।86)
- ↑ (पाणिनी अष्टा. 7।1।39)
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