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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें
(28)‘महिमानं तवेदम्’[1]- इसमें आया ‘इदम्’ पद ‘महिमानम्’ का विशेषण नहीं है; क्योंकि ‘महिमानम्’ पद पुल्लिंग में आया है और ‘इदम्’ पद नपुंसकलिंग में आया है। अतः यहाँ ‘इदम्’ का अर्थ ‘स्वरूप’ लिया गया है। इस दृष्टि से ‘महिमानं तवेदम्’ पदों का अर्थ हुआ- आपकी महिमा और स्वरूप। (29)‘इष्टकामधुक्’[2]- ‘इष्ट’ शब्द ‘यज्’ धातु से कृदन्त का ‘क्त’ प्रत्यय करने से बनता है, जो यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) का वाचक है; और ‘काम’ शब्द ‘कमु’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय करने से बनता है, जो पदार्थ (सामग्री) का वाचक है। अतः ‘इष्टकामधुक्’ पद का अर्थ हुआ- कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला। (30)‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’[3] और ‘भुञ्जते ते त्वघं पापाः’[4]- यहाँ ‘अर्शआदिभ्योऽच्’[5] इस सूत्र से ‘अच्’ प्रत्यय करने से ‘सांख्य’ शब्द सांख्य- योगी का, ‘योग’ शब्द कर्मयोगी का और ‘पाप’ शब्द पापी का वाचक हो जाता है। (31)‘अनेकजन्मसंसिद्धः’[6]- ‘अनेकजन्म’ का अर्थ है- ‘न एकजन्म इति अनेकजन्म’ अर्थात् एक से अधिक जन्म। योगभ्रष्ट के अनेक जन्म हो ही गये हैं। ‘संसिद्धः’ पद में भूतकाल का ‘क्त’ प्रत्यय होने से इसका अर्थ है- वह योगी अनेक जन्मों में संसिद्ध (शुद्ध) हो चुका है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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