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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें
(25)‘संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः’[1]- यद्यपि यहाँ ‘संन्यासः’ पद ‘आप्तुम्’ क्रिया का कर्म होने से उसमें द्वितीया होनी चाहिए, तथापि ‘तु’ पद को निपात संज्ञा मानकर उससे कर्म उक्त होने से ‘संन्यासः’ पद में प्रथमा हुई है। ‘तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ, इति’[2]- यद्यपि यहाँ ‘प्राहुः’ क्रिया का कर्म होने से ‘क्षेत्रज्ञ’ शब्द में द्वितीया विभक्ति होनी चाहिए थी, तथापि आगे ‘इति’ पद आने से अर्थात् ‘इति’ पद से उक्त होने से ‘क्षेत्रज्ञ’ शब्द में प्रथमा विभक्ति हो गयी है। (26)‘अनार्यजुष्टम्’[3]- इस पद में जो ‘नञ्’ समास है, वह ‘आर्यैष्टमार्यजुष्टम्’- इस तृतीया समास के बाद ही करना चाहिए; जैसे ‘न आर्युजुष्टम् अनार्यजुष्टम्’। अगर ‘नञ्’ समास तृतीया समास के पहले किया जाय कि ‘न आर्या अनार्याः अनार्यैजुष्टमनार्यजुष्टम्’ तो यहाँ यह कहना बनता ही नहीं, क्योंकि अनार्य पुरुषों के द्वारा जिसका सेवन किया जाता है, वह दूसरों के लिए आदर्श नहीं होता। (27)‘धार्तराष्ट्राणाम्’[4]- ‘अन्यायेन धृतं राष्ट्रं यैस्ते धृतराष्ट्राः’ (अन्यायपूर्वक धारण किया है राज्य जिन्होंने)- ऐसा बहुब्रीहि समास करने के बाद ‘धृतराष्ट्रा एव’ इस विग्रह में स्वार्थ में तद्धित का ‘अण्’ प्रत्यय किया गया, जिससे ‘धार्तराष्ट्राः’ यह रूप बन गया। यहाँ षष्ठी विभक्ति के प्रयोग की आवश्यकता होने से षष्ठी में ‘धार्तराष्ट्राणाम्’ ऐसा प्रयोग किया गया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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