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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें
(14)जहाँ प्रथम और मध्यम पुरुष का एक साथ प्रयोग होता है, वहाँ मध्यम पुरुष की ही प्राप्ति होती है अर्थात् मध्यम पुरुष ही बलवान् होता है। ऐसे ही जहाँ प्रथम और उत्तम पुरुष का एक साथ प्रयोग होता है, वहाँ उत्तम पुरुष की ही प्राप्ति होती है। जैसे- ‘स गच्छति’, ‘त्वं च गच्छसि’- ऐसा प्रयोग होने पर ‘युवां गच्छथः’ बलवान् होगा और ‘स गच्छति’, ‘अहं च गच्छामि’- ऐसा प्रयोग होने पर ‘आवां गच्छावः’ बलवान् होगा। प्रथम पुरुष के साथ मध्यम और उत्तम पुरुष रहने से प्रथम पुरुष बलवान् नहीं होता। प्रथम पुरुष तो वहीं बलवान् होता है, जहाँ मध्यम और उत्तम पुरुष की गंध भी न हो, क्योंकि शेष में प्रथम होता है- ‘शेषे प्रथमः’। जहाँ प्रथम और उत्तम पुरुष का एक साथ प्रयोग होता है, वहाँ ‘आवां गच्छावः’ ही बलवान् होगा; क्योंकि ‘युष्मद्युपपदे.....’- इस सूत्र से ‘अस्मद्युत्तमः’- यह सूत्र पर (आगे) होने से उत्तम पुरुष ही बलवान् होगा। गीता में दूसरे अध्याय के बारहवें श्लोक में प्रथम पुरुष (इमे जनाधिपाः), मध्यम पुरुष (त्वम्) और उत्तम पुरुष (अहम्)- इन तीनों का एक साथ प्रयोग हुआ है अर्थात् ‘ये राजालोग, तू और मैं पहले नहीं थे, यह बात नहीं है।’ अतः श्लोक के उत्तरार्ध में बलवत्ता के कारण उत्तम पुरुष का प्रयोग हुआ है- ‘न चैव न भविष्यामः सर्वे वयम्’ अर्थात् ‘हम सब आगे नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।’ तीसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में प्रथम पुरुष ‘ते देवा भावयन्तु वः’ (वे देवता तुमलोगों को उन्नत करें) और मध्यम पुरुष ‘(यूयम्) अनेन देवान् भावयत्’ (तुमलोग इस यज्ञ से देवताओं को उन्नत करो)- इन दोनों का एक साथ प्रयोग हुआ है। अतः श्लोक के उत्तरार्ध में बलवत्ता के कारण मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है- ‘श्रेयः परमवाप्स्यथ’ (तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे)। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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