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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें
(13)
1. कृत्य-प्रत्ययान्त शब्द के आगे रहने पर ‘अवश्यम्’ अव्यय के मकार का लोप हो जाता है; जैसे - अवश्यकार्यम्, अवश्यकर्तव्यम्। 2. ‘काम’ और ‘मनस्’ शब्द के आगे रहने पर ‘तुमुन्’ प्रत्यय के मकार का लोप हो जाता है; जैसे- गन्तुकामः गन्तुमनाः। 3. ‘हित’ और ‘तत’ शब्द के आगे रहने पर ‘सम्’ अव्यय के मकार का विकल्प से लोप हो जाता है; जैसे- सहित – संहित, सतत-संतत। 4. युडन्त (ल्युडन्त) अथवा घञन्त ‘पच्’ धातु के आगे रहने से ‘मांस’ शब्द के अकार का विकल्प से लोप हो जाता है; जैसे- मांस्पचनम्- मांसपचनम्, मांस्पाकः – मांसपाकः। गीता में भी इस कारिका के कुछ प्रयोग मिलते हैं; जैसे- पहले अध्याय के बाईसवें श्लोक में ‘योद्भुकामान्’ पद में ‘काम’ शब्द के आगे रहने से ‘तुमुन्’ प्रत्ययान्त ‘युद्धुम्’ अव्यय के मकार का लोप किया गया है। आठवें, नवें एवं बारहवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में ‘सतत’ पद में ‘तत’ शब्द के आगे रहने पर ‘सम’ अव्यय के मकार का लोप किया गया है।[1] (14)जहाँ प्रथम (‘स गच्छति’- वह जाता है), मध्यम (‘त्वं गच्छसि’ – जाता है) और उत्तम (‘अहं गच्छामि’ – मैं जाता हूँ)- इन तीनों पुरुषों का एक साथ प्रयोग होता है, वहाँ उत्तम पुरुष की ही प्राप्ति होती है। यद्यपि यहाँ ‘युष्मद्युपपदे....’[2] और ‘अस्मद्युत्तमः’[3]- इन सूत्रों से ‘शेषे प्रथमः’[4]- यह सूत्र पर (आगे) होने से प्रथम पुरुष होना चाहिए, तथापि ऐसा होता नहीं; क्योंकि ‘शेषे प्रथमः’ इस सूत्र की प्रवृत्ति वहीं होती है, जहाँ उत्तम और मध्यम पुरुष का विषय अस्मद् – युष्मद् शब्द साथ में न हों, इन दोनों की प्राप्ति न हो। अतः तीनों पुरुषों (स गच्छति, त्वं च गच्छसि, अहं च गच्छामि) में उत्तम पुरुष (‘वयं गच्छामः’- हम सब जा रहे हैं) की बलवान् होगा; क्योंकि ‘अस्मद्युत्तमः’ सूत्र पर[5] होने से उत्तम पुरुष ही होगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘विज्ञानसहितम्’ (9।1) में ‘सम’ के मकार का लोप करके ‘विज्ञानसहित’ बन जाता है और ‘सह’ अव्यय के स्थान पर ‘स’ भाव करके ‘सविज्ञान’ बन जाता है। तात्पर्य है कि दोनों का अर्थ एक ही है।
- ↑ (पाणि. 1।4।105)
- ↑ (पाणि. 1।4।107)
- ↑ (पाणि. 1।4।108)
- ↑ अपर से पर, पर से अन्तरंग और अंतरंग से अपवाद एक-एक से उत्तरोत्तर बलवान् होते हैं- ‘परनित्यांतरंगापवादानामुत्तरोत्तरं बलीयः’।
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