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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
92. गीता में आये ‘तत्त्वतः’ पद का तात्पर्य
तत्त्व से जानने का अर्थ है- जैसा है, वैसा जान लेना। वह जानना दो तरह का होता है-
ज्ञानयोग में अपने स्वरूप का साक्षात्कार करना ही तत्त्व से जानना है और भक्तियोग में 'सबके मूल में भगवान् ही हैं'- ऐसा दृढ़ता से मानना ही तत्त्व से जानना है, क्योंकि यथार्थ में सबके मूल में भगवान् ही है। दृढ़ता से मानना तत्त्व से जानने से कम नहीं है अर्थात् तत्त्व से जानने का जो फल होता है, वही फल दृढ़ता से मानने का होता है। भक्तलोग पहले 'सबके मूल में भगवान् ही है' ऐसा दृढ़ता से मान लेते है। फिर वे 'सब कुछ वासुदेव ही हैं' ऐसा तत्त्व से जान लेते हैं अर्थात् उनको ऐसा अनुभव हो जाता है। सातवें अध्याय के दूसरे श्लोक में इसी मानने को 'ज्ञान' नाम से और अनुभव करने को 'विज्ञान' नाम से कहा है। 'सब' कुछ वासुदेव ही है'- ऐसा अनुभव होने पर भक्त को अपने स्वरूप का अनुभव अपने आप हो जाता है। इसी बात को भगवान् ने गीता में 'यज्ज्ञात्वा नेह भूयोसन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते'[1] 'स सर्ववित्[2] पदों से कहा है। रामचरितमानस में भगवान् राम ने भी कहा है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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