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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
92. गीता में आये ‘तत्त्वतः’ पद का तात्पर्य
दसवें अध्याय के सातवें श्लोक में ‘तत्त्वतः’ पद भगवान् के प्रभाव, सामर्थ्य आदि को तथा उससे प्रकट होने वाली विभूतियों को जानने अर्थात् अटलभाव से मानने के अर्थ में आया है। इस तरह जो अटलभाव से मान लेता है, उसकी भगवान में अटल भक्ति हो जाती है अर्थात् उसकी मान्यता में भगवान् के सिवाय दूसरी कोई स्वतंत्र सत्ता, महत्ता, विलक्षणता स्वप्न में भी नहीं रहती। अठारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में ‘तत्त्वतः’ पद दो बार आया है। पहली बार ‘तत्त्वतः’ पद परमात्मा को तत्त्व जानने के अर्थ में आया है कि वे ही परमात्मा अनेक रूपों में, अनेक आकृतियों में, अनेक कार्य करने के लिए बार-बार प्रकट होते हैं और साधकों की अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार अनेक इष्टदेवों के रूप में कहे जाते हैं, पर वास्तव में वे परमात्मा एक ही हैं। दूसरी बात ‘तत्त्वतः’ पद परमात्मप्राप्ति के लिए आया है अर्थात् परमात्मा को तत्त्व से जानने के बाद भक्त तत्काल परमात्मा में प्रविष्टि हो जाता है, परमात्मा से अपनी वास्तविक अभिन्नता का अनुभव कर लेता है। तात्पर्य है कि चौथे अध्याय के नवें श्लोक में, सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में, दसवें अध्याय के सातवें श्लोक में और अठारवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में आया हुआ 'तत्त्वत:' पद भगत्तत्त्व को ठीक-ठीक जानने के अर्थ में आया है।[1] और छठे अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में आया हुआ 'तत्त्वत:' पद अपने स्वरूप को ठीक-ठीक अर्थ में आया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में तथा ग्याहरवें अध्याय के चौवनवें श्लोक में आया 'तत्त्वेन' पद भी भगवत्तत्त्व को क्रमश: ठीक-ठीक न जानने और जानने के अर्थ में आया है।
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