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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
61. गीता में सत्, चित् और आनन्द
चित्ज्ञान दो प्रकार का होता है- कारण निरपेक्ष और करण-सापेक्ष। परमात्मा और अपने स्वरूप का ज्ञान (बोध) करक निरपेक्ष है; क्योंकि वह ज्ञान स्वयं से ही होता है, इन्द्रियाँ, मन आदि करणों से नहीं। संसार और शरीर का ज्ञान करण-निरपेक्ष ज्ञान सबका प्रकाशक है। इसी ज्ञान से सबको प्रकाश मिलता है। इसी से मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सब प्रकाशित होते हैं। परंतु करण-सपेक्ष ज्ञान प्रकाश्य है। गीता में उपर्युक्त दोनों ज्ञानों का वर्णन भी प्राय: एक साथ ही हुआ है जैसे- वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योंतियों का ज्योंति है अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानों का ज्ञान है।[1] वह परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित होने पर भी सम्पूर्ण विषयों को प्रकाशित करता है[2] उस परमपदरूप परमात्मा को सूर्य (नेत्र), चंद्रमा (मन) और अग्नि (वाणी) प्रकाशित नहीं करते[3] किन्तु उससे ये सूर्य (नेत्र) आदि प्रकाशित होते हैं,[4] आदि। आनंदसुख भी दो प्रकार का होता है- पारमार्थिक और लौकिक। पारमार्थिक सुख परमात्मास्वरूप है। यह सुख तीनों गुणों से अतीत है। यह सुख सांसारिक सुख-दु:ख से रहित है। इसी सुख को गीता में अक्षय सुख आत्यन्तिक सुख और अत्यन्त सिख कहा गया है।[5] परंतु लौकिक सुख नाशवान् और तीनों गुणों वाला हैं। राजस और तामस सुख तो लौकिक हैं ही, उत्पन्न होने वाला होने से सात्त्विक सुख भी लौकिक ही है। गीता में लौकिक सुख का वर्णन प्रायः दुख के साथ ही हुआ है; जैसे- ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’, ‘समदुःखसुखम्’[6]; ‘सुखेषु विगतस्पृहः’[7]; ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु’[8]; ‘समदुख-खसुखः’, ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु’[9]; ‘समदुःखसुखः’[10]; ‘सुखदुःखसंज्ञा’[11]; आदि। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (13।17)
- ↑ (13।14)
- ↑ (15।6)
- ↑ (15।12)
- ↑ (5।21,6।21,28)
- ↑ (2।14-15)
- ↑ (2।56)
- ↑ (6।7)
- ↑ (12।13, 18)
- ↑ (14।24)
- ↑ (15।5)
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