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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
58. गीता में गुणों का वर्णन
अठारहवें अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में आया ‘विगुणः’ शब्द भी तीनों गुणों से रहित का वाचक नहीं है, प्रत्युत सद्गुण सदाचारों की कमी का वाचक है।[1] इस प्रकार गीता में भाव, गुणों की वृत्तियाँ, श्रद्धा, पूजन, भोजन, यज्ञ, तप, दान, त्याग, ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख- इन पंद्रह रूपों में गुणों का वर्णन हुआ है। उपर्युक्त तीनों गुणों में से सत्त्वगुण का तात्पर्य प्रकृति और प्रकृति के कार्य से संबंध विच्छेद कराने में है, रजोगुण का तात्पर्य प्राकृत पदार्थों के साथ संबंध दृढ़ करने में है और तमोगुण का तात्पर्य मूढ़ता के बढ़ जाने में है। गीता के सत्त्वगुण का स्वरूप प्रकाशक और अनामय है[2]। ‘प्रकाश’ नाम अंतःकरण की स्वच्छता, निर्मलता का है अर्थात् अंतःकरण में सत्-असत् और कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक होना ‘प्रकाश’ है। ‘अनामय’ नाम रोगरहित अर्थात् विकाररहित होने का है। मनुष्य विकाररहित होता है- जड़ता का त्याग करने से। गीता में जैसे सत्त्वगुण को ‘अनामय’ कहा गया है, ऐसे ही निर्गुण तत्त्व को भी ‘अनामय’ कहा गया है।[3] दोनों को अनामय कहने का तात्पर्य है कि परमात्मप्राप्ति में हेतु होने का कारण सत्त्वगुण निर्गुण तत्त्व के नजदीक है। रजोगुण का स्वरूप रागात्मक है।[4] उत्पन्न और नष्ट होने वाले पदार्थों में आकर्षण, प्रियता होने का नाम ‘राग’ है, जिससे कामना पैदा होती है। यह कामना ही संपूर्ण पापों का कारण है।[5] तमोगुण का स्वरूप मोहनात्मक है, जिसमें मूढ़ता मुख्य है[6] गीता में राजस कर्ता को हिंसात्मक कहा गया है[7] और तामस कर्म में भी हिंसा बतायी गयी है।[8] दोनों में हिंसा बताने का तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुण- दोनों एक दूसरे के नजदीक है।[9] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता में जिन अध्याय में तथा जिन श्लोकों में गुणों का वर्णन आया है, उन्हीं का यहाँ संकेत किया गया है।
- ↑ (14।6)
- ↑ (2।51)
- ↑ (14।7)
- ↑ (3।37)
- ↑ (14।8)
- ↑ (18।27)
- ↑ (18।25)
- ↑ तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण- तीनों में परस्पर (1, 10 और 100 की तरह) दसगुने का अंतर है। फिर भी तमोगुण (1) से रजोगुण (10) निकट है और सत्त्वगुण (100) इन दोनों से दूर हैं।
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