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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
57. गीता में कर्तृत्त्व-भोक्तृत्त्व का निषेध
वास्तविक स्वरूप में सुख-दुख नहीं है। यह सुख-दुख से अलग है, आनन्द स्वरूप है। परंतु जब यह प्रकृति के साथ पनी एकता मान लेता है, तब यह अनुकूल परिस्थिति आने पर ‘मैं सुखी हूँ’ और प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर ‘मैं दुखी हूँ’- ऐसा मान लेता है।[1] जब यह प्रकृति से संबंध विच्छेद करके अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तब यह सुख दुख में सम हो जाता है। फिर जो एकदेशीय अहम् है, जिसको ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ पदों से[2] कहा है, वह मिट जाता है और उसकी बुद्धि साम्यावस्था में स्थित हो जाती है, मन निर्विकल्प हो जाता है, इंद्रियाँ निर्विषय हो जाती हैं अर्थात उनमें राग द्वेष नहीं रहते तथा स्थूल शरीर में मैं मेरापन मिट जाता है। ऐसे महापुरुष संसार को जीत लेते हैं अर्थात् सांसारिक संयोग-वियोग से ऊँचे उठ जाते हैं क्योंकि वे अपने स्वरूप में स्थित हो गये हैं। वास्तव में वे स्वरूप में स्थित हो नहीं गये, प्रत्युत वे तो स्वरूप में सदा ही स्थित था। जिस समय वे शरीर में अपनी स्थिति मानते थे, उस समय भी वे शरीर में स्थित नहीं थे, उस समय भी वे कर्तृत्व भोक्तृत्व से रहित थे- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेयन करोति न लिप्यते’[3] तात्पर्य है कि स्वयं में कर्तृत्व भोक्तृत्व है ही नहीं। अगर वास्तव में यह कर्ता भोक्ता होता तो भगवान् ‘न करोति न लिप्यते’ कैसे कहते? अगर इसकी तीनों गुओं के साथ एकता होती तो भगवान ‘निस्त्रैगुण्यो भव’[4] कहकर तीनों गुणों से रहित होने की आज्ञा क्यों देते? निषेध उसी का होता है, जो वास्तव में नहीं होता। ज्ञानयोगी साधक ‘प्रकृतिजन्य गुण ही गुणों में बरत रहे हैं’- ऐसा जानकर अपने को उन क्रियाओं का कर्ता नहीं मानता[5] अतः उसके कर्तृत्व भोक्तृत्व मिट जाते हैं। कर्मयोगी साधक केवल यज्ञ परंपरा अर्थात् कर्तव्य-कर्म की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्म करता है। केवल दूसरों के हित के लिए ही कर्तव्य कर्म करने से उसका कर्तृत्व कर्तव्य कर्म के साथ ही दूसरों की सेवा में प्रवाहित हो जाता है। फिर केवल सेवा रह जाती है, सेवक नहीं रहता। अतः उसमें कर्तत्त्व नहीं रहता। ऐसे ही कर्मयोगी फलेच्छा, कामना, आसक्ति से रहित होकर तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है[6] फलेच्छा न रहने से उसमें भोक्तृत्व भी नहीं रहता। तात्पर्य है कि दूसरों के हित के लिए कर्म करने से कर्तृत्व और फलेच्छा न रहने से भोक्तृत्व मिट जाता है[7] भक्तियोगी साधक शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने आपको भगवान् के अर्पित कर देता है।[8] उसके द्वारा जो कुछ होता है, वह सब भगवान् का किया कराया ही होता है; अतः उसमें कर्तृत्व नहीं रहता। वह वस्तु, व्यक्ति आदि मात्र संसार का भोक्ता भगवान् को ही मनता है[9]अतः उसमें भोक्तृत्व भी नहीं रहता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रकृति का स्वरूप है- क्रिया और पदार्थ अर्थात् प्रकृति ही क्रिया और पदार्थ रूप से प्रकट होती है। क्रिया और पदार्थ के संबंध से जो सुख होता है, वह ‘भोग’ है, योग नहीं। परंतु परमात्मा के संबंध से जो सुख होता है, वह ‘योग’ है, भोग नहीं अतः इस सुख में भोक्ता नहीं रहता।
- ↑ (3।27)
- ↑ (13।31)
- ↑ (2।45)
- ↑ (5।8-9।,13।29)
- ↑ (2।51)
- ↑ (4।20)
- ↑ (18।66)
- ↑ (5।29)
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