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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
52. गीता में लोकसंग्रह
ज्ञातव्य
कर्मयोगी साधक में कर्म करने का जो स्वभाव होता है, वही स्वभाव सिद्धावस्था में भी रहता है। अतः कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष में स्वाभाविक ही कर्म करने की प्रवृत्ति दीखती है। परंतु ज्ञानयोग से सिद्ध महापुरुष में वैसी प्रवृत्ति नहीं दीखती। कारण कि ज्ञानयोगी पहले से ही अपने को असंग अनुभव करता है। अतः सिद्धावस्था में उसकी कर्मों और पदार्थों से स्वाभाविक ही उपरति रहती है, जो ज्ञानमार्ग के साधकों के लिए आदर्श होती है और उस महापुरुष की पदार्थ आदि से जो तटस्थता है, वह दुनियामात्र के लिए हितकारी होती है।
उत्तर- उस महापुरुष के शरीर द्वारा क्रिया होने में दो कारण हैं- एक उनका प्रारब्ध और दूसरा, प्राणियों का भाव। जिस प्रारब्ध के प्रवाह से ‘उसको शरीर मिला है, उसी प्रारब्ध से उसके द्वारा सभी क्रियाएँ होती हैं और उसके सामने जो प्राणी आते हैं, उन प्राणियों के भावों के अनुसार ही उसके द्वारा क्रियाएँ होती हैं। अगर उसके पास प्रेमभाव रखने वाला, श्रद्धालु मनुष्य आता है तो उसके साथ उस महापुरुष का बर्ताव भी प्रेमयुक्त होता है और अगर उदासीन अथवा वैरभाव रखने वाला मनुष्य आता है तो उस महापुरुष का बर्ताव भी उदासीन की तरह होता है (वैरभाव महापुरुष में होता ही नहीं)।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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