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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
52. गीता में लोकसंग्रह
ज्ञातव्य
अपने कल्याण का भाव रखकर कर्म करना भी स्वार्थ है। अतः लोकसंग्रह करने वाले मनुष्य को इस भाव का भी त्याग कर देना चाहिए और केवल संसारमात्र के कल्याण का भाव रखना चाहिए। यद्यपि अपने कल्याण का भाव रखना सकामभाव नहीं है, तो भी व्यक्तिगत कल्याण का भाव लोकसंग्रह को पूरा नहीं होने देता। जो मनुष्य अपने कल्याण का भी भाव न रखकर अपने कर्तव्य का पालन करता है, उसके द्वारा स्वतः ही लोगों का हित होता है। जैसे बर्फ के पास जाने पर ठंडक मिलती है, आग के पास जाने पर गरमी मिलती है, ऐसे ही उस मनुष्य के पास जाने पर, उसको याद करने पर भी लोगों का कल्याण होता है। अगर ऐसा मनुष्य गृहस्थाश्रम में हो तो उसके घर का अन्न-जल लेने का भी कल्याण हो जाता है और अगर वह संन्यासाश्रम मे हो तो वह जिसके अन्न-जल आदि को ग्रहण करता है, उस (अन्न-जल देने वाले) का भी कल्याण हो जाता है। ऐसे लोकसंग्रही महापुरुष के दर्शन, भाषण और चिंतन से भी लोगों का कल्याण होता है। उसके जीवित रहने पर उसके आचरणों, वचनों, भावों का प्राणियों पर जैसा असर पड़ता है, वैसा ही असर उसका शरीर न रहने पर भी पड़ता है। जिस स्थान पर वह महापुरुष रहता था, उस स्थान पर कोई अपरिचित व्यक्ति भी चला जाय तो उस व्यक्ति को वहाँ बड़ी शांति मिलती है। उस महापुरुष के दिए हुए उपदेश आकाश में स्थायी रूप से रहते हैं, जो अधिकारी व्यक्ति को उसकी जिज्ञासा, उत्कण्ठा के अनुसार मिलते रहते हैं। अधिकारी व्यक्ति को इस बात का पता नहीं लगता कि वे भाव कहाँ से आये, पर वह उन भावों के आने में भगवान् या संतों की कृपा को ही कारण मानता है। महापुरुष के द्वारा जो भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब आदर्श रूप से होती हैं। कहीं-कहीं उनकी क्रियाएँ अनुयायी रूप से भी दीखती हैं। जिस तरह आस्तिक लोग शास्त्रविहित कर्मों में एवं उन कर्मों के फलों में दृढ़ श्रद्धा विश्वास रखते हुए सकामभाव से तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी तरह ज्ञानी महापुरुष भी तत्परता से कर्म करता है।[1] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (3।25)
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