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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
30. गीता में एक निश्चय की महिमा
इस व्यवसायात्मिका (एक निश्चयवाली) बुद्धि की ऐसी महिमा है कि दुराचारी से दुराचारी, पापी से पापी मनुष्य भी ‘मेरे को केवल परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है’- ऐसा एक निश्चय कर लेता है तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है। केवल धर्मात्मा ही नहीं होता, उसको निरंतर रहने वाली शांति प्राप्त हो जाती है, अर्थात् उसके उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है।[1] अव्यवसायात्मिका बुद्धिवाला मनुष्य कितने ही जन्म ले और एक-एक जन्म में भी कितना ही उद्योग, परिश्रम करे, पर उसकी इच्छाओं की पूर्ति कभी होगी नहीं, प्रत्युत नयी-नयी इच्छाएँ पैदा होती चली जाएंगी, जिनका कभी अंत आएगा ही नहीं। हाँ, कभी किसी इच्छा की पूर्ति हो भी जाएगी तो वह आगे नयी-नयी इच्छाओं को उत्पन्न करने में कारण बन जाएगी। तात्पर्य है कि व्यवसायात्मिका बुद्धि होने पर अव्यवसायात्मिका बुद्धि मिट जाती है परंतु अव्यवसायात्मिका बुद्धि के रहते हुए व्यावसायात्मिका बुद्धि कभी नहीं होती। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह जल्दी से जल्दी परमात्म प्राप्ति का एक निश्चय कर ले; क्योंकि केवल परमात्मप्राप्ति के लिए ही मिला यह मनुष्य शरीर न जाने कब छूट जाए और हम परमात्म प्राप्ति से वंचित रह जायँ! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (9।30-31)
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