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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
9. गीता में आहारी का वर्णन
राजस भोजन न्याययुक्त और सच्ची कमाई का होने पर भी तत्काल तो भोजन का ही असर होगा अर्थात् पेट में जलन आदि होंगे। कारण कि भोज्य पदार्थों का शरीर के साथ ज्यादा संबंध होता है। परंतु भोजन सच्ची कमाई का होने से परिणाम में वृत्तियाँ अच्छी बनेंगी और राजसी वृत्तियाँ ज्यादा देर नहीं ठहरेंगी। वृत्तियों में शोक, चिंता आदि की तीव्रता नहीं रहेगी, शांति रहेगी। तामस भोजन सच्ची कमाई का होने पर भी तामसी वृत्तियाँ तो बनेंगी ही। हाँ, सच्ची कमाई का होने से तामसी वृत्तियों का स्थायित्व नहीं रहेगा, कभी-कभी सात्त्विक वृत्तियाँ भी आ जाएंगी। सात्त्विक मनुष्य में विवेक जाग्रत रहता है; अतः वह पहले भोजन के परिणाम को देखता है अर्थात् उसकी दृष्टि पहले परिणाम की तरफ ही जाती है। इसलिए सात्त्विक आहार में पहले फल (परिणाम-) का और पीछे भोजन के पदार्थों का वर्णन हुआ है।[1] राजस मनुष्य में राग रहता है, भोज्य पदार्थों की आसक्ति रहती है; अतः उसकी दृष्टि पहले भोजन के पदार्थों की तरफ ही जाती है। इसलिए राजस आहार में पहले भोज्य पदार्थों का और पीछे फल- (परिणाम-) का वर्णन हुआ है।[2] तामस मनुष्य में मोह- मूढ़ता रहती है; अतः वह मोहपूर्वक ही भोजन करता है। इसलिए तामस आहार में केवल तामस पदार्थों का ही वर्णन आया है फल- (परिणाम-) का वर्णन आया ही नहीं।[3] किसी भी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय का मनुष्य क्यों न हो, अगर वह पारमार्थिक मार्ग में लगेगा, साधन करेगा तो उसकी रुचि (प्रियता) स्वाभाविक ही सात्त्विक आहार में होगी, राजस तामस आहार में नहीं। सात्त्विक आहार करने से वृत्तियाँ सात्त्विक बनती हैं और सात्त्विक वृत्तियों से सात्त्विक आहार में प्रियता होती है। कर्मयोगी में निष्कामभाव की, ज्ञानयोगी में विवेकपूर्वक त्याग की और भक्तियोगी में भगवद्भाव की मुख्यता रहती है। उनके सामने भोजन के पदार्थ आने पर भी उन पदार्थों में उनका खिंचाव, प्रियता पैदा नहीं होती। जैसे, कर्मयोगी के सामने भोजन आ जाए तो उसमें सुख एवं भोग बुद्धि न रहने से वह रागपूर्वक भोजन नहीं करता; अतः भोजन में सात्त्विकता की कमी रहने पर भी निष्कामभाव होने से भोजन में सांगोपांग सात्त्विकता आ जाती है। ज्ञानयोगी संपूर्ण पदार्थों से विवेकपूर्वक संबंध-विच्छेद करता है; अतः भोज्य पदार्थों से संबंध न रहने के कारण वह जो भोजन करता है, वह सात्त्विक हो जाता है। भक्तियोगी भोज्य पदार्थों को पहले भगवान् के अर्पण करके फिर उनको प्रसादरूप से ग्रहण करता है, अतः वह भोजन सात्त्विक हो जाता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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