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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
9. गीता में आहारी का वर्णन
राजस मनुष्य में शरीर को पुष्ट एवं ठीक रखने वाले सात्त्विक तथा तामस पदार्थों की इच्छा हो जाती है। राग की प्रधानता होने से यह इच्छा उन पदार्थों का सेवन करने के लिए उसको बाध्य कर देती हैं। तामस मनुष्य में भी सात्त्विक-राजस मनुष्यों के संग से सात्त्विक राजस पदार्थों के सेवन की इच्छा (रुचि) हो जाती है; परंतु मोह-मूढ़ता की प्रधानता होने से इस इच्छा का उस पर विशेष असर नहीं होता। सात्त्विक मनुष्य भी अगर सात्त्विक पदार्थों (भोजन-) का रागपूर्वक अधिक मात्र में सेवन करेगा, तो वह भोजन राजस हो जाएगा, जो परिणाम में दुःख, शोक, एवं रोगों को देने वाला हो जाएगा। अगर वह लोभ में आकर अधिक मात्रा में पदार्थों का सेवन करेगा तो वह सात्त्विक भोजन भी तामस हो जाएगा, जो अधिक निद्रा, आलस्य में लगा देना। राजस मनुष्य भी अगर राजस भोजन को रागपूर्वक करेगा तो परिणाम में रोग, पेट में जलन आदि होंगे। अगर वह उन्हीं पदार्थों का सेवन अधिक मात्रा में करेगा तो जलन, दुःख, रोग आदि का साथ-साथ निद्रा, आलस्य आदि भी बढ़ जाएंगे। अगर वह विवेक-विचार से उसी भोजन को थोड़ी मात्रा में करेगा तो उसका परिणाम राजस (दुःख, शोक आदि) न होकर सात्त्विक होगा अर्थात् अंतःकरण में निर्मलता, शरीर में हल्कापन, ताजगी आदि होंगे। निद्रा कम आयेगी, आलस्य नहीं आएगा: क्योंकि उसने युक्ताहार किया है। तामस मनुष्य अगर तामस भोजन को मोहपूर्वक करेगा तो तामसी वृत्तियाँ ज्यादा पैदा होंगी। अगर उसी भोजन को वह थोड़ी मात्रा में करेगा तो वैसी वृत्तियाँ पैदा नहीं होगी, सामान्य वृत्तियाँ रहेंगी अर्थात् अधिक मोहित करने वाली वृत्तियाँ नहीं होंगी। भोजन के पदार्थ सात्त्विक होने पर भी अगर वे न्याययुक्त एवं सच्ची कमाई के नहीं होंगे, प्रत्युत निषिद्ध रीति से पैदा किए होंगे, तो उनका नतीजा अच्छा नहीं होगा। वे कुछ न कुछ राजसी तामसी वृत्तियाँ पैदा करेंगे, जिससे पदार्थों में राग बढ़ेगा, निद्रा आलस्य भी ज्यादा होंगे। अतः भोजन के पदार्थ सात्त्विक हों, सच्ची कमाई के हों, पवित्रतापूर्वक बनाये जायँ और भगवान् को भोग लगाकर शांति पूर्वक थोड़ी मात्रा में पाये जायँ तो उनका नतीजा बहुत ही अच्छा होता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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