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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता के अनुसार भगवद्भजन
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। ‘अर्जुन! तुम जो कुछ भी कर्म करते हो-खाते हो, हवन करते हो, दान करते हो और तप करते हो, सब मेरे अर्पण कर दो। इस प्रकार जिसमें समस्त (लौकिक, पारलौकिक, पारमार्थिक आदि) कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं, ऐसे सन्यास योग से युक्त चित्त वाले तुम शुभाशुभ फलरूप कर्म बन्धन से मुक्त हो जाओगे और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होओगे।’ तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। ‘अतएव तुम सब समय निरन्तर मेरा स्मरण करो और युद्ध भी करो। इस प्रकार मुझमें अर्पित मन-बुद्धि से युक्त होकर तुम निस्सन्देह मुझ को ही प्राप्त होओगे।’ इस प्रकार मनुष्य भगवत्-स्मरण तथा भगवदर्पण बुद्धि सेस किये जाने वाले विहित कर्मों के द्वारा भगवान् की पूजा करता हुआ अनायास ही भगवान् को प्राप्त कर सकता है। और इस प्रकार सभी लोग कर सकते हैं। पर इसके साथ ही, कुछ समय प्रतिदिन अलग भी भगवान् का भजन-पूजन किया जाय तो उससे जल्दी लाभ होता है और वह सहज भी है। यह सत्य है कि पूरा भजन तो वही है, जो आठों पहर बिना विराम के और प्रत्येक कर्म के द्वारा ही होता रहता है। पर ऐसे भजन में प्रवृत्ति हो इसके लिये भी नित्य नियम पूर्वक कुछ समय तक अलग बैठकर भजन करने की आवश्यकता है। मेरी समय से आप यदि थोड़ी भी चेष्टा करेंगे तो आपको समय मिल ही जायगा। यह याद रखना चाहिये कि मानव-जीवन का एकमात्र लक्ष्य भगवत्प्राप्ति है और एकमात्र कर्तव्य भगवद्भजन है। चाहे जैसे भी हो अपनी-अपनी रुचि तथा अधिकार के अनुसार यह अवश्य करना ही चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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