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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
त्याग से शान्ति मिलती ही है
आपने जो कुछ पूछा उसका एकमात्र उत्तर यही है कि वास्तविक त्याग होने पर तो शान्ति मिलती ही है- ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ [1]। यदि शान्ति नहीं है तो त्याग में ही त्रुटि है। सच्चा त्याग मन से होता है। पर जब तक त्याग की स्मृति है और त्याग का अहंकार है, तब तक भी यथार्थ त्याग नहीं समझना चाहिये। इसलिये त्याग का भी त्याग होना चाहिये। त्याग की वास्तविकता में त्याग किये हुए पदार्थों में आसक्ति या ममता नहीं रह जाती। उसमें एक आनन्द की अनुभूति होती है, पर वह आनन्द भी अहंकारजनित नहीं होता। सहज तृप्तिजनित सुख होता है। वस्तुतः त्याग के बिना सच्ची सेवा भी नहीं हो पाती। जो सेवा करके बदला चाहता है, उसका कोई पुरस्कार चाहता है, उसमें त्याग का अभाव होने से उसकी सेवा मलिन और अशुद्ध हो जाती है। उससे शान्ति रूपी सच्चा सुख नहीं मिल सकता। हम ऊपर से वस्तुओं का त्याग करते हैं; परंतु मन में उनके प्रति आसक्ति, मोह और महत्व बना रहता है। इसलिये उनकी बार-बार स्मृति होती है, मन उनके संग से मुक्त नहीं होता। अतएव कभी तो उनका अभाव खटकता है और कभी यदि कोई वस्तु हमने किसी को दी है तो उसके प्रति यह भावना होती है कि मैंने उसका बड़ा उपकार किया है, उसे मेरा कृतज्ञ होना चाहिये। वह नहीं होता, उपकार नहीं मानता तो मनमें दुःख होता है। दोनों ही स्थितियों में यथार्थ त्याग का अभाव हैं नहीं तो, त्याग में न तो कोई अभाव दीखता और न दुःख ही होता। त्याग करने वाला मनुष्य न तो त्याग की हुई वस्तु का स्मरण करके अभाव का अनुभव करता है और दूसरे के लिये उत्सर्ग की हुई वस्तु के लिये अहंकार करके उस पर अहसान ही करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 12/12)
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