विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त कर्मयोग और आधुनिक कर्मवाद
जिस कर्मयोग को भगवान् ने, ‘कर्मसन्यासात्कर्म योगो विशिष्यते’[1]कर्मसंन्यास से श्रेष्ठ बतलाया, जिसके आचरण करने वालों के लिये ‘जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।’[2] जन्म-बन्धन से छूटकर अनामय (अमृतमय) परमपद की प्राप्ति बतलायी, वह गीतोक्त कर्मयोग क्या आधुनिक कर्मवाद ही है? आजकल जगत् के विशिष्ट शिक्षित पुरुष जिस कर्मवाद के पीछे पागल हैं, जीवन भर में कभी जिन्हें इन प्रश्नों पर विचार करने के लिये फुरसत ही नहीं मिलती, या जो विचार करना आवश्यक ही नहीं समझते कि ‘ईश्वर क्या है, प्रकृति क्या है, जगत् का क्या स्वरूप है, हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं?’ ऐसी बातों की कल्पना करना जिनके मन समय का दुरुपयोग करना है और जो रात-दिन केवल भौतिक उन्नति का आदर्श सामने रखकर ही अपनी-अपनी जाति की, अपने देश की और संसार की भौतिक उन्नति के लिये, पार्थिव भोग-पदार्थों की प्राप्ति और सम्भोग के लिये कर्म में लग रहे हैं। एक मिनट के लिये भी जिनको कर्म से अवकाश नहीं है उनका वह कर्म क्या गीतोक्त कर्मयोग है? आजकल कुछ लोग ऐसा ही समझते हैं, या सिद्ध करना चाहते हैं कि गीता में इसी कर्मयोग की शिक्षा दी गयी है। इसीलिये वे अपनी या परायी ऐहिक उन्नति के लिये कामासक्ति पूर्वक अनवरत कर्मप्रवाह में बहते हुए मनुष्यों को ‘कर्मयोगी’ की पदवी देते हैं और गीता के श्लोकों से इसका समर्थन करना चाहते हैं। अतएव इस विषय पर कुछ विचार करना आवश्यक हो गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज