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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
आध्यात्मिक शक्ति ही जगत् को विनाश से बचा सकती है
जहाँ जीवन का लक्ष्य केवल कामोपभोग होता है, वहाँ मनुष्य में धीरे-धीरे समस्त आसुरी सम्पत्तियाँ आ जाती हैं। गीता के सोलहवें अध्याय में आसुरी सम्पत्ति का वर्णन देखना चाहिये। आज का मनुष्य कामोपभोग परायण है। उसका लक्ष्य भौतिक उन्नति प्रचुर परिणा में जागतिक पदार्थों की प्राप्ति है। व्यक्ति और राष्ट्र सभी इसी होड़ में लगे हैं। इसी का परिणाम संघर्ष, संहार, अशान्ति और दुःख है और भौतिक उन्नति के दोड़ में लगे हुए जगत् के लिये यह अनिवार्य है। परमाणु बम- जिसने क्षणों में लाखों हिरोशिमा-निवासियों का विनाश कर डाला और जिसकी दानवीय शक्ति पर आज भी अमेरिका जगत् को आतंकित कर रहा है एवं सोवियत रूप के वैज्ञानिक जिसके आश्चर्यजनक विकास की साधनों में सलंग्न हैं, यह इस आसुरी ‘कामोपभोग परायणता’ की देन है। भगवान् की दिव्यता से रहित भौतिक उन्नति मानव को रसातल में ले जाती है, वह उन्नति, प्रगति और विकास के मोहक नामों पर पतन के अत्यन्त गहरे गर्त में गिर जाता है, जिससे उठने का उसे जन्म-जन्मान्तर तक भी अवकाश नहीं मिलता, वरं उत्तरोत्तर उसे नीची-से-नीची गति में जाना पड़ता है। श्रीभगवान् ने ऐसे ही मनुष्य के लिये कहा है- तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्। ‘उन द्वेष करने वाले, अशुभ कर्मांे में लगे हुए, क्रूर-हृदय नीच नरों को मैं (भगवान्) संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ। अर्जुन! वे मूढ़ लोक (आसुरी सम्पत्ति का अर्जन कर काम-क्रोधादि की परायणता से केवल सांसारिक भोगों की प्राप्ति और भोगों में लगे रहकर अपने ही हाथों अपना पतन करने वाले मूर्ख) एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में बार-बार आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं। मुझ (भगवान्)- को न पाकर (मनुष्य-शरीर की सच्ची सफलता भगवत्-प्राप्ति से वंचित रहकर) आसुरी योनि से भी अति नीच गति को प्राप्त करते हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (16/19-20)
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