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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
(1) प्रश्न- जीवन में निरन्तर भजन करने वाला अन्त में मति खराब हो जाने से नीचे गिर जाता है और उसका भजन व्यर्थ चला जाता है, तथा हमेशा पाप करने वाला अन्त समय में शुद्ध बुद्धि होने के कारण मोक्ष को प्राप्त हो जाता है-इसमें क्या रहस्य है? उत्तर- यह सत्य है कि अन्तिम श्वास में जैसी मति होती है, उसी के अनुसार गति होती है; परंतु अन्तिम क्षण में होने वाली मति अपने-आप अचानक ही नहीं हो जाती, उसके लिये कारण होना चाहिये। वह कारण है- जीवन भर किये हुए अच्छे-बुरे अपने कर्म। जिसने जीवनभर भजन किया है, उसकी मति अन्त में भजन में होगी और जिसने पाप किया है, उसकी पाप में होगी। अधिकांश में ऐसा ही होता है। कहीं-कहीं इसके विपरीत भी होता है; भगवत्कृपा से, अकस्मात् किसी महात्मा पुरुष के दर्शन और अनुग्रह से, भगवन्नाम और गुणों के स्मरण से या किसी वरदान आदि से पाप करने वाले की बुद्धि शुद्ध हो सकती है; परंतु उसमें भी पूर्वकृत कर्म ही कारण होता है। ‘पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता’ के सिद्धान्त के अनुसार संत-दर्शन में पूर्वपुण्य ही कारण होते हैं; भगवन्नाम-गुणों का स्मरण भी पूर्वाभ्यास से ही होगा और वरदान भी किसी कर्म का फल होगा। इसी प्रकार अन्तिम समय में फलदानोन्मुख अशुभ प्रारब्ध के कारण कुसंगति के प्रभाव से, विषाद, क्रोध और शोकादि से या शापादि से ‘मति’ बिगड़ जाती है; परंतु इनमें भी कर्म ही कारण है। अतएव वर्तमान में सदा शुभ कर्म करने चाहिये और वे भी भगवान् का चिन्तन करते हुए। फिर मति बिगड़ने का कोई डर नहीं है। भगवान् कहते हैं- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। (अन्तकाल में जैसी मति होती है, वेसी ही गति होती है और अन्तकाल में प्रायः वैसी ही मति होती है, जैसे कर्म मन से जीवन भर आते हैं।) इसीलिये अर्जुन! तुम सब समय निरन्तर मेरा स्मरण करो और युद्ध भी करो। इस प्रकार मन-बुद्धि मुझमें अर्पण हो जाने से अन्त में तुम निःसन्देह मुझ को ही प्राप्त होओगे। मृत्यु जब भी आवेगी; तभी तुम उसे मेरा स्मरण करते हुए मिलोगे। मतलब यह कि हर समय भगवान् के स्मरण का अभ्यास करना चाहिये। फिर अन्तकाल में भगवत्कृपा से मति शुद्धि ही रहेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 8/7)
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