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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
ज्ञान और प्रेम
राग-द्वेष सभी जगह मिलेगा। यह तो श्री भगवान् ने कहा ही है- इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। ‘प्रत्येक इन्द्रिय के प्रति अर्थ में राग-द्वेष हैं, हमें उनको अपना शत्रु समझकर उनके वश नहीं होना चाहिये।’ वास्तव में राग-द्वेषादि का मूल कारण अपनी ही भूल है। हमारे मन से राग-द्वेष निकल जायगा तो जगत् में कहीं राग-द्वेष के दर्शन नहीं होंगे। ब्रह्मविद् सर्वत्र ब्रह्म ही देखता है। राग-द्वेष माया का का कार्य है। माया की ग्रन्थि से छूटा हुआ पुरुष राग-द्वेष का दर्शन वस्तुतः नहीं पाता। वैसी स्थिति न होने तक यथासाध्य राग-द्वेष का प्रभाव अपने चित्त पर नहीं पड़ने देना चाहिये। तेरे भावें जो करौ भलो बुरो संसार। आपने लिखा कि मेरे लायक कोई शिक्षा लिखियेगा, सो ऐसा आपको नहीं लिखना चाहिये। मुझमें न तो शिक्षा देने की कोई योग्यता है और न अधिकार ही है आपकी मुझ पर सदा से कृपा रही है, उसी कृपा के भरोसे प्रार्थना या सलाह रूप में आपको कुछ लिखने की धृष्टता-आपके पूछने पर-बैठता हूँ। सो इसी आशा पर कि आप मुझ पर हर हालत में प्रसन्न ही होंगे। अब आपके प्रश्नों पर कुछ निवेदन करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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