गीता चिन्तन- हनुमान प्रसाद पोद्दार
मातर्गीतेमाता श्री भगवद्गीते! अनन्त असीम गुणातीत विश्वातीत विशुद्ध स्वतन्त्र सत्-चित्-आनन्दरूप परब्रह्म की अभिन्न ज्योति! विश्व लीला में प्रवृत्त सृजन-संहार-मूर्ति, नियन्त्रण का निपुण, सर्वशक्तिमान्, सर्वसंचालक गुण विशिष्टि भगवान् की चिरसंगगिनी! अपनी विश्वातीत सत्ता में नित्य अनन्त रूप से स्थित रहते हुए भी विश्व लीला में अपनी लीला से ही नयनाभिराम त्रिभुवन कमनीय पूर्णसत्व दिव्य नरदेहधारी भगवान् की दैवी वाणी! विश्व लीला में असंख्य प्राणियों के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न भावों से अंश रूप में प्रतिभासित, अपनी ही माया से लीला हेतु स्वरूप विस्मृत निद्रित-से प्रतीत होने वाले सनातन चेतन आत्मा को लीला के लिये ही प्रबुद्ध करने वाली दिव्य-दुन्दुभि सम्पूर्ण विश्व के समस्त चेतना चेतन पदार्थों में-ग्रीष्म-वर्षा, शरत्-वसन्त, शीत-उष्ण, पर्वत-सागर, स्वर्ण-लोष्ट, शिशु-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, देव-दानव, सुन्दर-भयानक, करुण-रुद्र, हास्य-क्रन्दन, जन्म-मृत्यु और सृष्टि-प्रलय आदि समस्त भावों में, सभी के अंदर से अपने नित्य-सत्य-केन्द्रीभूत सौन्दर्य और अखण्ड पूर्ण अस्तित्व को अभिव्यक्त करने वाले विश्व व्यापी भगवान् की प्रकृत मूर्ति का उद्घाटन करने वाली माँ! तुझे बार-बार नमस्कार है। माता! तुझ दयामयी के विश्व में विद्यमान रहते हम विश्व वासियों की यह दुर्दशा क्यों हो रही है? स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की वाड्मयी मूर्ति! तू भगवान् का हृदय है, तू मार्ग भ्रष्टों की पथ-प्रदर्शिका है, तू घन-अन्धकार में दिव्य प्रखर प्रकाश है, तू गिरे हुए को उठाती है, चलने वाले को विशेष गतिशील बनाती है, शरणागत का हाथ पकड़कर उसे परमात्मा के अभय-चरण कमलों में पहुँचा देती है। ऐसी अद्भुत लीलीमयी शान्तिदायिनी माता के रहते हम असहाय और अनाथ की भाँति क्यों दुःखी हो रहे हैं? अमृत समुद्र के शीतल सुखद तट पर निवास करके भी त्रिताप से संतप्त क्यों हो रहे हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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