1.जो तीनों गुणों के कार्य प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह से उदासीन रहता है।
2.जो साक्षी की भाँति रहकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता।
3.जो गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं, ऐसा समझकर अपनी आत्म-स्थिति में अचल रहता है।
4.जो सुख-दुःख को समान समझता है।
5.जो स्व-स्वरूप में सदा स्थित रहता है।
6.जो मिट्टी, पत्थर और सोने को समान समझता है।
7.जो प्रिय और अप्रिय को एक-सा समझता है।
8.जो किसी भी अवस्था में अधीर नहीं होता।
9.जो अपनी निन्दा-स्तुति को समान समझता है।
10.जो मान-अपमान को समान समझता है।
11.जो शत्रु और मित्रों में भेदभाव नहीं रखता।
12.जो सभी कर्मों के आरम्भ में कर्तापन के अभिमान से रहित है।
13.जो अनन्य भक्ति से परमात्मा का स्वाभाविक ही सेवन करता है।
14.जो गुणों की सीमा को लाँघकर ब्रह्म में स्थित हो जाता है।