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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में विश्व रूप-दर्शन
श्रीमद् भगवद्गीता के एकादश अध्याय में भगवान् के विश्व रूप दर्शन का प्रसंग है। प्रसंग बड़ा ही मधुर और हृदय ग्राही है। जितना भी मन लगाकर पढ़ा जाता है उतना ही अधिक आनन्द आता है। परंतु यह समझ में आना बहुत ही कठिन हो जाता है कि भगवान् का यह विश्व रूप वस्तुतः था कैसा? अनेक महानुभावों ने इस प्रसंग पर विभिन्न मत प्रकट किये हैं। किन्हीं का कहना है कि ‘यह भक्तिपूर्ण मनोहर काव्य मात्र है।’ किन्हीं का कथन है कि ‘यह रूपक है, इसमें अर्जुन की उस समय की मानस-स्थिति का चित्रण किया गया है।’ कोई कहते हैं-‘अर्जुन को दिव्यचक्षु देने का अर्थ है उसे सम्यक् ज्ञान प्रदान करना और विश्वरूप दिखाने का तात्पर्य है उस ज्ञान को सुदृढ़ करना कि एक ब्रह्मसत्ता के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ भी भासता है सब मायामात्र है।’ इसी प्रकार अन्यान्य बहुत-से महानुभावों ने और भी अनेकों प्रकार से इसकी व्याख्या की है। गीता के इस विश्वरूप-दर्शन का वास्तविक रहस्य क्या है और विश्वरूप का यथार्थ स्वरूप कैसा है, इसको तो वे ही बतला सकते हैं जिनको इस विश्व रूप-दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। ऐसे सौभाग्यवान् एक अर्जुन ही हैं अथवा गौणरूप से व्यास जी के द्वारा दिव्यदृष्टि प्राप्त संजय हैं। परंतु इस समय ये दोनों ही हमारे सामने नहीं हैं। ऐसी अवस्था में विश्व रूप का रहस्य समझने में शास्त्र, संत, महात्मा और विद्वानों के विचार तथा अपने अनुमान के सिवा और कोई उपाय नहीं है। यहाँ इन्हीं उपायों के सहारे भगवान् के इस विश्व रूप-प्रसंग पर कुछ विचार किया जा रहा है। वस्तुतः लेखक को न तो यथार्थ रहस्य का ज्ञान है, न उनका रहस्योद्घाटन का दावा है और न रहस्योद्घाटन के विचार से यह प्रयास ही किया जाता है। यह तो केवल ‘स्वान्तः सुखाय’ है। आशा है, अनुभवी विज्ञ विद्वान् इस बालचपलता के लिये कृपा पूर्वक क्षमा करेंगे। भगवान् का स्वरूप क्या और कैसा है, इसको वस्तुतः भगवान् ही जानते हैं। वे निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार सभी कुछ हैं और सभी से परे हैं। वे क्या हैं और क्या नहीं हैं, इसका विवेचन पूर्णरूप से न तो आज तक कोई कर सके हैं, न आगे कर ही सकते हैं। भगवान् का जितना भी वर्णन है, सभी आंशिक है, परंतु आंशिक होने पर भी है उन्हीं का, इसीलिये, सभी ठीक है। अनन्त का अन्त तो कौन पा सकता है। यथार्थ में भगवान् के स्वरूप, तत्व, रहस्य, प्रभाव और लीला-गुणादि का वर्णन उनके स्वरूप की यथार्थ व्याख्या के लिये नहीं, वरं अपने कल्याण के लिये ही किया जाता है और इसी दृष्टि से लेखक का भी यह क्षुद्र प्रयास है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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