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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रकृति की लीला के द्रष्टा बनिये
आत्मा- पुरुष सुख-दुःख, जन्म-मरणादि द्वन्द्वों से रहित नित्य शुद्ध-बुद्ध है। परंतु ‘प्रकृतिस्थ’ होने के कारण प्रकृति में होने वाले परिवर्तन और विकार पुरुष में दिखायी देते हैं और वह भी ऐसा ही अनुभव करके सुख-दुःख भोगता तथा जन्म-मरण एवं अच्छी-बुरी योनियों में चक्र में पड़ा रहता है- पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुडक्ते प्रकृतिजान् गुणान्। ‘प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही उसके अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है।’ प्रकृति की चंचलतामयी लीला में जब पुरुष स्वयं जाकर मिल जाता है, तभी यह सब होता है। इससे छूटने का उपाय है- वह ‘स्व-स्थ’ (आत्मस्थ) होकर प्रकृति की लीला का द्रष्टा बन जाय और प्रकृति के समस्त कार्यों को दृश्य बनाकर देखने लगे। जहाँ कर्ता-भोक्ता न रहकर द्रष्टा बना कि चटुला प्रकृति-नटीका ताण्डव नृत्य अपने-आप बंद हो जायगा। द्रष्टा के आसन पर विराजमान आत्मस्थ अप्रलुब्ध भाव से देखने वाले पुरुष के सामने प्रकृति दृश्य बनकर लीला नहीं कर सकती; उसकी लीला बंद हो जाती है। फिर प्रकृति के द्वन्द्वों का द्रष्टा पुरुष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह प्रकृति के गुणों से अतीत होकर समता का अनुभव करता है। उसी के लिये कहा है- उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते। ‘तटस्थ उदासीन द्रष्टा की भाँति स्थित वह पुरुष प्रकृति के गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं- यों समझता हुआ वह परमात्मा में एक रूप से स्थित है; उस स्थिति से कभी चलायमान नहीं होता। वह स्व-स्थ (स्व-आत्मा में स्थिति) दुःख-सुख को, मिट्टी-पत्थर-स्वर्ण को, प्रिय-आप्रिय को और अपनी निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला धीर पुरुष मान-आपमान, मित्र-शत्रु को समभाव से देखता है। ऐसा समस्त आरम्भों का त्यागी-किसी भी आरम्भ में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष ‘गुणातीत’ कहलाता है।’ तदनन्तर जब प्रकृति की लीला का ‘दृश्य’ नहीं रहता, तब वह द्रष्टा भी नहीं रहता। वह नित्य अपने सच्चिदान्द स्वरूप में स्थित रहता है। यही जीवन्मुक्तावस्था है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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